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________________ नयविवरणम् २५३ इन्द्रः पुरन्दरः शक्र इत्याद्या भिन्नगोचराः । शब्दा विभिन्नशब्दत्वाद् वाजिवारणशब्दवत् ॥११॥ तक्रियापरिणामोऽर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् । एवंभूतेन नीयेत क्रियान्तरपराङ्मुखः ॥१२॥ यो यं क्रियार्थमाचष्टे नासावन्यत्क्रियं' ध्वनिः । पठतीत्यादिशब्दानां पाठाद्यर्थत्वसंजनात ||३|| सर्वदृश्वा ( जिसने सबको देख लिया है ) और विश्वदृश्वा ( जिसने विश्वको देख लिया है ) ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, किन्तु शब्दनय इनका एक ही अर्थ मानता है: भिन्न-भिन्न अर्थ नहीं मानता। इसी तरह भविता (सं० लुट्लकार), भविष्यति ( सं० लट्लकार ) का भी एक ही अर्य मानता है। तथा 'क्रियत' 'विधीयते', 'करोति', 'विदधाति' इन सब धातु शब्दोंका भी एक ही अर्थ मानता है। इसी तरह पुष्य आर तिष्यका, तारक और उड़का आपः और वाःका, अम्भः और जलका भी एक ही अर्थ मानता है, क्योंकि इन पर्यायवाची शब्दोंमें काल, कारक, लिंग आदिका भेद नहीं है। किन्तु समभिरूढ़नय पर्यायभेदसे भी भिन्न अर्थ मानता है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि शब्दोंका अर्थ मिन्न है, क्योंकि ये सब शब्द मिन्न-भिन्न हैं, जैसे वाजि (घोडा) और वारण (हाथी ) शब्द हैं। ____ इन्द्र , शक्र और पुरन्दर ये तीनों शब्दोंका सामान्य अर्थ'इन्द्र' ही है । शब्दनय भी ऐसा ही मानता है; क्योंकि इन तीनों शब्दोंमें लिंग, संख्या आदिका भेद नहीं है। किन्तु समभिरूढ़नय शब्दभेदसे अर्थभेद मानता है । अतः उसके मतसे प्रत्येक पर्याय शब्दका भी अर्थ भिन्न है। जैसे'इन्द्र' शब्दका व्युत्पत्त्यर्थ है-आनन्द करनेवाला, शक्रका है-शक्तिशाली और पुरन्दरका है-नगरोंको उजाड़नेवाला । अतः इस नयका मन्तव्य है कि स्वर्गके अधिपतिको इन्द्र'इसलिए कहते हैं कि वह आनन्द करता है, शक्तिशाली होनेसे उसे शक्र कहते हैं और नगरोंको उजाड़ने वाला होनेसे ( इसका सम्बन्ध हिन्दूधर्मके एक पौराणिक कथानकसे है ) पुरन्दर कहते हैं। अत: यह नय निरुक्तिके भेदसे प्रत्येक शब्दका भिन्न-भिन्न अर्थ मानता है। अब एवंभूत नयको कहते हैं अन्य क्रियाओंसे विमुख और उसी क्रियारूप परिणत हुए अर्थको उसी रूपसे निश्चय करनेवाला नय एवंभूत है। देवताओंका राजा इन्द्र' आनन्दरूप क्रिया करता हो या न करता हो समभिरूढ़ नय उसे 'इन्द्र'शब्दसे कहना पसन्द करता है, जैसे गाय चलती हो या न चलती हो उसे गौ कहा जा सकता है। किन्तु एवंभूत नय देवराजको उसी समय'इन्द्र' कहना पसन्द करता है जब वह आनन्द करता हो। गाय को उस समय 'गो' कहा जा सकता है जब वह चलती हो; क्योंकि यह नय जिस शब्दका जो व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ है तदनुसार क्रिया करते हुए ही उस शब्दके प्रयोगको उचित मानता है । क्योंकि जो शब्द जिस क्रिया रूर अर्थको कहता है वह अन्य क्रियारूप अर्थको नहीं कहता। क्योंकि पठति इत्यादि शब्दोंका पढ़ना आदि अर्थ पाया जाता है । एवंभूतनयका मत है कि सब शब्द क्रियापरक हैं। गौ, अश्व आदि जो जातिवाचक शब्द माने जाते हैं वे भी क्रियाशब्द ही हैं।जो आशु (शीघ्र) गामी होता है उसे अश्व कहते हैं। शुक्ल, नील आदि गुणवाचक माने जानेवाले शब्द भी क्रिया शब्द ही हैं। शुभ्र होनेसे शुक्ल और नीला होनेसे नील कहा जाता है। देवदत आदि ऐच्छिक शब्द भी क्रिया शब्द है । देव जिसे देखें उसे देवदत्त कहते हैं। इसी तरह जो दण्ड लिये १. यत् मु० २ । २. -चन्यक्रियां मु० २, -वन्यत्क्रियं मु० १ । ३. –द्यर्थप्रसंजनम् मु० २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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