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नयविवरणम्
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भेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं मानते । 'तुम जाओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा।' यहाँ साधनभेद होनेपर मी तथा सन्तिष्ठेत, और अवतिष्ठेतमें उपग्रहभेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं मानते । किन्तु उनका ऐसा मानना परीक्षा करनेपर उचित प्रतीत नहीं होता, यह शब्दनय कहता है क्योंकि कालादिका भेद होनेपर मी अर्थका भेद न मानने में अतिप्रसंग दोष आता है।
व्यवहारनय कालादिका भेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं मानता। किन्तु शब्दनय काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रहके भेदसे अर्थभेद मानता है। आशय यह है कि जैसे प्रमाण अनन्त धर्मात्मक वस्तुका बोधक है, वैसे ही शब्द भी अनन्तधर्मात्मक वस्तुका वाचक है। अन्य वैयाकरण वाचक शब्दके रूपमें परिवर्तन होनेपर भी वाच्य पदार्थके रूपमें कोई परिवर्तन नहीं मानते । किन्तु जैन शाब्दिकोंका मत है कि वाचकमें जो लिंग, संख्या आदिका परिवर्तन होता है वह यों ही नहीं होता। जिन धर्मोसे विशिष्ट वाचकका प्रयोग किया जाता है, वे सब धर्म वाच्यमें रहते हैं। जैसे यदि गंगाके किनारेको संस्कृतके तटः, तटी और तटम्, इन तीन शब्दोंसे कहा जाये-इन तीनों शब्दोंका मूल एक तट शब्द ही है। इसमें जो परिवर्तन हम देखते हैं वह लिंगभेदसे है-तो चूंकि ये तीनों शब्द क्रमशः पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंगमें निर्देश किये गये हैं,अतः इनके वाच्यमें भी ये तीनों धर्म वर्तमान हैं। इसी तरह कालभेदसे एक ही वस्तु तीनरूपसे पुकारी जाती है। जब तक कोई वस्तु नहीं उत्पन्न हुई तब तक उसे 'होगी' कहते हैं। उत्पन्न होनेपर होती है। कहते हैं। कुछ समय बीतनेपर 'हुई' कही जाती है । यह तीनों 'होना' धातुके रूप हैं। और तीनों वस्तुकी तीन अवस्थाओंको बतलाते हैं। इसी तरह भिन्न कारकोंकी विवक्षासे एक ही वृक्ष 'वृक्षको' 'वृक्षसे' 'वृक्षके लिए' 'वृक्षमें' आदि अनेक रूपोंसे कहा जाता है। अतः ये शब्द वृक्षके भिन्न-भिन्न धर्मोकी ओर संकेत करते हैं। एक बच्चा पुरुष होनेके कारण 'देवदत्त' कहा जाता है। वह यदि लड़कोका वेश धारण कर ले तो लोग उसे 'देवदत्ता' कहने लगते हैं। अतः लिंगभेदसे भी अर्थभेदका सम्बन्ध है। यह शब्दनयकी दृष्टिका तात्पर्य है। अतः वैयाकरण व्यवहारनयके अनुरोधसे 'इसके विश्वको देख चुकनेवाला पुत्र पैदा होगा' 'होनेवाला काम हो गया' इत्यादि प्रयोगोंमें कालभेद होनेपर भी एक ही वाच्यार्थ मानते हैं। 'जो विश्वको
वह पुत्र पैदा होगा' यहाँ भविष्यत्कालके साथ अतीत कालका अभेद मान लिया गया है, क्योंकि इस प्रकारका व्यवहार देखा जाता हैकिन्तु वह ठीक नहीं है,क्योंकि कालभेद होनेपर भी अर्थमें भेद न माननेपर अति प्रसंग दोष आता है । जैसे रावण हो चुका और शंख चक्रवर्ती आगे होगा। इन दोनोंको भी एक कहा जा सकेगा। यदि कहोगे कि रावण तो पहले हो चुका और शंख चक्रवर्ती आगे होगा, अतः इन दोनों शब्दोंका भिन्न विषय होनेसे एक अर्थ नहीं हो सकता, तो 'जिसने विश्वको देख लिया है और वह उत्पन्न होगा' इन दोनोंका
क्योकि 'जिसने विश्वको देख लिया है' इस वाक्यका अर्थ अतीतकाल है और होगा' इस वाक्यका अनागतकाल है। अतः आगे होनेवाला पत्र अतीतकालीन कैसे हो सकता है ? यदि कहा जाता है कि अतीतकाल में अनागतकालका आरोप करनेसे एकार्थता बन जायेगी तो परमार्थसे कालभेद होनेपर भी एकार्थव्यवस्था नहीं बन सकती।
तथा 'करता है' यह कर्तृकारक है और 'किया जाता है' यह कर्मकारक है। इनमें कर्ता-कर्मका भेद होनेपर भी वैयाकरण अर्थभेद नहीं मानते । क्योंकि 'वही कुछ करता है' और 'वही किसी के द्वारा किया जाता है' ऐसी प्रतीति होती है। किन्तु परीक्षा करनेपर उनका यह कथन भी ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि ऐसा माननेपर 'देवदत्त घट बनाता है' इस वाक्यमें कर्ता देवदत्तके और कर्म घटके भी अभेदका प्रसंग आता है। तथा 'पुष्यः पुल्लिग शब्द है और 'तारकाः स्त्रीलिग शब्द । इस प्रकार लिंगभेद होनेपर भी दोनोंका अर्थ नक्षत्र ( तारे ) किया जाता है। यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा माननेपर 'पट:' और 'कूटी में पट और कुटीके भी एकत्वका प्रसंग आता है, क्योंकि दोनोंका लिंग भिन्न है।
तथा 'आपः' शब्द नित्य बहुवचनान्त है और 'अम्भः' शब्द एकवचनान्त है इस प्रकार वचनभेद
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