________________
नयविवरणम्
नन्वयं भाविनीं संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते । अप्रस्थादिषु तद्भावस्तण्डुलेष्वोदनादिवत् ॥३३॥ इत्यसद्बहिरर्थेषु तथानध्यवसानतः । स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तितः ॥३४॥
पूछता है कि कहाँ जाते हो ! वह उत्तर देता है कि प्रस्थ लानेके लिए जाता हूँ । यहाँ वह लकड़ीमें प्रस्थ बनानेका जो संकल्प करता है, उसमें ही प्रस्थका व्यवहार करता है । इसी तरह पानी वगैरहके भरने में लगे हुए किसी पुरुषसे कोई पूछता है-आप क्या करते हैं ? वह उत्तर देता - भात पकाता हूँ । किन्तु उस समय वहाँ भात कहाँ ? भात पकानेके संकल्पसे वह जो उद्यम कर रहा है, उसीमें वह भातका व्यवहार करता । इस प्रकार अनिष्पन्न अर्थके संकल्प मात्रको विषय करनेवाला जो लोकव्यवहार है वह नैगमनयका विषय है । इससे नैगमनका विषय अशुद्ध द्रव्य है । अकलंक देवने अष्टशती में लिखा है कि दो मूल नयोंकी शुद्धि और अशुद्धि की अपेक्षासे नैगमादि नयोंकी उत्पत्ति होती है । उसकी व्याख्या करते हुए स्वामी विद्यानन्दिने अष्टसहस्रो में लिखा है कि मूलनय द्रव्यार्थिककी शुद्धि से संग्रहनय निष्पन्न होता है, क्योंकि वह समस्त उपाधियोंसे रहित शुद्ध सन्मात्रको विषय करता है और सम्यक् एकत्व रूपसे सबका संग्रह करता है । उसीको अशुद्धि से व्यवहारनय निष्पन्न होता है, क्योंकि वह संग्रहनयके द्वारा गृहीत अर्थोका विधिपूर्वक भेद-प्रभेद करके उनको ग्रहण करता है । जैसे वह सत् द्रव्यरूप है या गुणरूप है । इसी तरह नैगम भी अशुद्धि से निष्पन्न होता है, क्योंकि वह सोपाधि वस्तुको विषय करता है । उस नैगमनयकी प्रवृत्ति तीन प्रकारसे होती है— द्रव्यमें, पर्यायमें और द्रव्यपर्यायमें । द्रव्यनैगमके दो भेद है -शुद्धद्रव्यनैगम, अशुद्धद्रव्यनैगमं । पर्यायनैगमके तीन भेद हैं -- अर्थपर्यायनैगम, व्यंजनपर्याय नैगम, अर्थव्यंजनपर्यायनैगम । अर्थ पर्यायनैगमके तीन भेद हैं- ज्ञानार्थपर्यायनंगम, ज्ञेयार्थ पर्यायनैगम, ज्ञानज्ञेयार्थ पर्यायनैगम । व्यंजनपर्यायनैगमके छह भेद हैं- शब्दव्यंजनपर्यायनैगम, समभिरूढव्यंजनपर्यायनैगम, एवंभूतव्यंजनपर्यायनैगम, शब्दसमभिरूढव्यंजनपर्याय नैगम, शब्द- एवंभूतव्यंजनपर्यायनैगम, समभिरूढ़ एवंभूतव्यंजनपर्यायनैगम । अर्थव्यंजनपर्यायनैगमके तीन भेद हैं- ऋजुसूत्र शब्दअर्थव्यंजन पर्यायनैगम, ऋजुसूत्र - समभिरूढ़ अर्थव्यंजनपर्यायनैगम, ऋजुसूत्र - एवंभूत अर्थव्यंजनपर्यायनैगम । द्रव्यपर्यायनैगमके आठ भेद - शुद्धद्रव्यऋजुसूत्र द्रव्यपर्यायनैगम, शुद्धद्रव्य शब्द-द्रव्यपर्यायनैगम, शुद्धद्रव्य समभिरूढद्रव्यपर्यायनैगम, शुद्धद्रव्य एवंभूतद्रव्यपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्य ऋजुसूत्रद्रव्यपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्य -शब्दद्रव्यपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्य-समभिरूद्रव्यपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्य एवंभूतद्रव्यपर्यायनैगम ।
नैगमनयके उक्त भेदों को गिनाकर विद्यानन्द स्वामीने लिखा है कि लोक और शास्त्रके अविरोधपूर्वक उदाहरण घटा लेना चाहिए। किन्तु इनके उदाहरणादि किसी अन्य ग्रन्थमें मेरे देखने में नहीं आये ।
२३९
नैगमनयके विषयमें आशंका और उसका परिहार
वर्तमान में भविष्यका उपचार करना मात्र है । जैसे तण्डुलको भात कहना । आचार्यका कहना है कि शंकाकारका कथन असंगत है; अध्यवसाय नहीं है । अपने जाने जा रहे संकल्पके होनेपर हो इस
शंकाकारका कहना है कि यह नैगमनयका विषय तो भविष्य में होनेवाली संज्ञाका आश्रय लेकर कहना या जो प्रस्थ नहीं है उसे प्रस्थ क्योंकि बाह्य अर्थों में उस प्रकारका नयकी प्रवृत्ति होती है ।
शंकाकारका कहना है कि नैगमनय तो भावि संज्ञा व्यवहाररूप है; जैसे राजकुमारको राजा कहना या चावलको भात कहना । आचार्यका कहना है कि ऐसा नहीं है अर्थात् नैगमनय केवल भावि संज्ञा व्यवहार नहीं है । भावि संज्ञा व्यवहारमें तो राजकुमार और चावल वस्तूभूत होते हैं । किन्तु नैगमनयमें तो कोई
Jain Education International
१. 'भाविसंज्ञाव्यवहार इति चेत् न, भूतद्रव्यासंनिधात् । - तत्त्वार्थवार्तिक १ । ३३ । ३ । २. 'द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकप्रविभागवान्नैगमादयः शब्दार्थनया बहुविकल्पा मूलन यद्वयशुद्धयशुद्धिभ्याम् । अष्टसहस्री पृ० २८७ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org