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________________ २३८ परिशिष्ट ये प्रमाणादयो भावा प्रधानादय एव वा। ते नैगमादि भेदानामर्था नापरनीतयः ॥३०॥ तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नेगमो नयः । सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थस्याभिधानतः ॥३१॥ संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजनः । तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥३२॥ नैयायिकने जो प्रमाण आदि सोलह पदार्थ माने हैं या सांख्यने प्रधान आदि पचीस तत्व माने हैं वे सब नैगम आदि नयोंके ही विषयमत हैं, उनसे मिन्न नहीं हैं। जैन दर्शनमें वस्तुको द्रव्यपर्यायात्मक माना है। अतः वस्तुके मूल अंश दो हैं-द्रव्य और पर्याय । शेष सब इन्हीमें गभित हैं । अतः इन दोनों मूल अंशोंको जाननेवाले मूलनय भी दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । किन्तु अन्य वादियोंने अनेक तत्त्व माने हैं। जैसे कोई वादी द्रव्य, पर्याय सामान्य और विशेषको पृथक्पृथक् मानते हैं । जैन धर्ममें ही नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंके द्वारा वस्तुका न्यास किया जाता है या द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे वस्तुका विवेचन किया जाता है । अथवा उनमें भवको मिलाकर पांच रूपसे भी वस्तुका विवेचन किया जाता है । बौद्धदर्शनमें पांच स्कन्ध माने गये हैं।वैशेषिकदर्शन-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामके छह पदार्थ मानता है। नैयायिक-प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान ये सोलह पदार्थ मानता है। सांख्य पचीस तत्त्व मानता है--प्रकृति, महान्, अहंकार, पांच तन्मात्रा, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन, पांच भूत, और पुरुष। इस तरह विभिन्न दर्शनोंमें विभिन्न मूल तत्त्व माने गये हैं । और नयोंकी व्यवस्था ज्ञेय तत्त्वोंके आधारपर स्थित है। अतः जैसे जैन दर्शनमें द्रव्य,पर्यायके आधारपर दो मूल नय माने गये हैं, वैसे ही नामादि तथा द्रव्यादिके आधारपर चार या पांच मूल नय क्यों नहीं हैं या वैशेषिक, नैयायिक और सांख्य मतके तत्त्वोंकी संख्याके आधारपर छह या सोलह या पचीस नय क्यों नहीं है? ऐसीआशंका होनेपर ग्रन्थकार कहते हैं कि उक्त सभी तत्त्व द्रव्य और पर्यायमें गर्भित हो जाते हैं । जैनदर्शनने द्रव्य एक ऐसा पदार्थ माना है कि जिसके माननेपर उसे दूसरे पदार्थको माननेकी आवश्यकता ही नहीं रहती। वैशेषिकके द्वारा माने गये द्रव्य, गण, कर्म, सामान्य. विशेष और समवायका अन्तर्भाव द्रव्यमें ही हो जाता है। क्योंकि गुण और पर्यायके आधारको द्रव्य कहते हैं। ये गुण और पर्याय द्रव्यके ही आत्म स्वरूप हैं । इसलिए ये किसी भी दशामें द्रव्यसे पृथक् नहीं होते। द्रव्यके परिणमनकी दशाको पर्याय कहते हैं। कर्म या क्रिया सक्रिय द्रव्योंकी ही परिणति है। उससे कोई पृथक् वस्तु नहीं है। गुणोंके कारण द्रव्य सजातीयसे मिलते हुए तथा विजातीयसे विभिन्न प्रतीत होते हैं।इस सदृशता और विसदृशताको ही सामान्य और विशेष कहते हैं । इसी तरह सांख्यके दो मूल तत्त्वोंमें से प्रधानका अन्तर्भाव पुद्गल द्रव्यमें और पुरुषका अन्तर्भाव जीव द्रव्यमें हो जाता है। प्रमाण, संशय आदि जीवके ज्ञानगणकी ही दशाएं हैं। अतः द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुके दो ही मूल अंश हैं और उनको विषय करनेवाले दो ही मूल नय है।ये दो नय ही सब नयोंके मूल हैं । आगे नैगमनयका स्वरूप बतलाते हैं नयके उक्त भेदोंमेंसे नैगमनय संकल्पमात्रका ग्राहक है। यह नय अशुद्ध द्रव्यस्वरूप अर्थका कथन करनेसे उपाधिसे सहित है। निगमका अर्थ संकल्प है। उससे जो उत्पन्न हो अथवा वह संकल्प सका प्रयोजन हो उसे नैगमनय कहते हैं। प्रस्थ आदिका संकल्प उसका अभिप्राय माना जाता है। 'निगम'शब्दसे नैगम शब्दकी निष्पत्ति हुई है। निगमका अर्थ है -संकल्प । संकल्प मात्रको जो वस्तु रूपसे ग्रहण करता है उसे नैगमनय कहते हैं। जैसे कोई आदमी इस संकल्पसे कि जंगलसे लकड़ी लाकर उसका प्रस्थ (अनाज मापनेका एक भाण्ड ) बनाऊँगा, कुठार लेकर जंगलकी ओर जाता है। उससे कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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