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________________ २३७ नयविवरणम् प्रमाणगोचरार्थांशा नीयन्ते यैरनेकधा । ते नया इति विख्याता जाता मूलनयद्वयात् ॥२३॥ द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषपरिबोधकाः । न मूलं नैगमादीनां नयाश्चत्वार एव तु ॥२४॥ सामान्यस्य पृथक्त्वेन द्रव्यादनुपपत्तितः। सादृश्यपरिणामस्य तथा व्यंजनपर्ययात् ॥२५॥ वैसादृश्यविवर्तस्य विशेषस्य च पर्यये। अन्तर्भावाद्विभाव्येत द्वौ तन्मलं नयाविति ॥२६॥ नामादयोऽपि चत्वारस्तन्मूलं नेत्यतो गतम् । द्रव्यक्षेत्रादयश्चैषां द्रव्यपर्यायगत्वतः ॥२७॥ भवान्विता न पञ्चैते स्कन्धा वा परिकीर्तिताः। रूपादयो त एवेह तेऽपि हि द्रव्यपर्ययौ ॥२८॥ तथा द्रव्यगुणादीनां षोढात्वं न व्यवस्थितम् । षट् स्युमूलनया येन द्रव्यपर्यायगा हि ते ॥२९॥ पर्यायके अभेदको चर्चा सन्मति तर्कमें उठायो गयी है। उसमें कहा है-'द्रव्य और गुणका भेद तो दूर रहो, पहले 'गुण'शब्दके विषयमें ही विचार करते हैं कि क्या गुण संज्ञा पर्यायसे भिन्न अर्थमें प्रयुक्त है या पर्यायके अर्थमें ही प्रयुक्त है। भगवान्ने द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक ये दो ही नय निश्चित किये हैं। यदि पर्यायसे गुण भिन्न होता तो गुणास्तिकनय भी उन्हें निश्चित करना चाहिए था। परन्तु चूँकि अरिहन्तने उन-उन सूत्रोंमें गौतम आदि गणधरोंके समक्ष पर्याय संज्ञा निश्चित करके उसीका विवेचन किया है, अतः ऐसा मानना चाहिए कि पर्याय ही हैं और पर्यायसे गुण भिन्न नहीं है । पर्याय' शब्दका अर्थ है-वस्तुको अनेक रूपोंमें परिणत करने वाला और गुणका अर्थ है वस्तुको अनेकरूप करनेवाला। इस तरह ये दोनों शब्द समान अर्थवाले ही हैं। फिर भी उसे 'गुण'शब्दसे नहीं कहा जाता; क्योंकि देशना पर्याय नयको ही है;गुणास्तिककी नहीं।' इस तरह 'सन्मतितर्कके' तीसरे काण्डमें गुण और पर्यायके अभेदकी पुष्टि विस्तारसे की गयी है। उसीका अनुसरण करते हुए आचार्य विद्यानन्दने भी उक्त कारिकाके द्वारा गण और पर्यायके अभेदका कथन करते हए कहा है कि द्रव्यमात्र द्रव्यार्थिकका विषय है और पर्यायमात्र पर्यायार्थिकका विषय है। इनके सिवाय कोई तीसरा मूलनय नहीं है। उक्त प्रकारसे जिनके द्वारा प्रमाणके विषयमत पदार्थके अनेक अंश जाने जाते हैं, वे नयके नामसे विख्यात हैं और वे सब नय दो मुल नयोंसे ही उत्पन्न हुए हैं। द्रव्य पर्याय सामान्य और विशेषको जाननेवाले चार नय नैगम आदि सात नयोंके मूल नहीं हैं। क्योंकि सामान्य द्रव्यसे मिल नहीं है। इसी सरह सादृश्य परिणाम व्यंजन पर्यायसे मिन्न नहीं है। तथा विसदृशता परिणामरूप विशेषका पर्यायमें अन्तर्माव हो जाता है, इसलिए मूल नयसे दो ही हैं। इस उक्त कथनसे यह मी ज्ञात हो चुका कि नाम, स्थापना, द्रव्य और माव मी उन नोंके मूल नहीं हैं और न द्रव्य,क्षेत्र, काल तथा भाव ही हैं ; क्योंकि ये सब द्रव्य और पर्यायमें ही अन्तर्गत हैं। तथा इन द्रव्यादि चारमें भवको मिला देनेपर ये पाँच मी नयोंके मूल नहीं हैं और न रूप,वेदना,विज्ञान,संज्ञा और संस्कार रूप पाँच स्कन्ध ही उन नयोंके मूल हैं; क्योंकि वे सब भी पुण्य पर्यायरूप ही हैं। तथा द्रव्य, गुण, आदि पदार्थोंका छह प्रकारपना भी नहीं बनता, जिससे मूलनय छह हो जायें; क्योंकि वे सब भी द्रव्य और पर्यायमें ही अन्तर्गत हैं। १. व्याख्याता मु. १ अ० ब०। २. ज्ञाता मु. २। ३. तन्मूलनया-मु० २। ४. दयस्तेषां मु०२ । ५. ग्राहिते मु० । १० ब०। ६. सन्मतितर्क, काण्ड ३, गाथा ८-२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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