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परिशिष्ट
"निरुक्त्या लक्षणं लक्ष्यं तत्सामान्यविशेषतः । नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः ॥ २० ॥ तदंशी द्रव्यपर्यायलक्षणो सव्यपेक्षिणी । 'नीयेते तु यकाभ्यां तो नयाविति विनिश्चितो ॥२१॥ गुणः पर्याय एवात्र सहभावी विभावितः । इति तद् गोचरो नान्यस्तृतीयोऽस्ति गुणार्थिकः ॥२२॥
तो उनकी संख्या बहुत अधिक होगी; क्योंकि 'सन्मति तर्क में "कहा है कि जितने वचनोंके मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं । आशय यह है कि वचनका आधार वक्ताका अभिप्राय है । अतः किसी भी एक वस्तुके विषय में जितने वचन प्रकार सम्भव हों, उतने ही उस वस्तुके विषय में भिन्न-भिन्न अभिप्राय समझना चाहिए । वक्ताके अभिप्रायको ही नयवाद कहते हैं । अतः वचनके जितने प्रकार हैं, उतने ही नयवाद हैं । अतः विस्तारसे नयोंकी संख्या संख्यात कही है ।
अब जिज्ञासुका प्रश्न है कि नयका सामान्य लक्षण उसके दोनों भेदोंमें कैसे घटित होता है ? आगे उसीका समाधान करते हैं
यहाँ निरुक्ति द्वारा सामान्य और विशेषरूपसे नयोंका लक्षण दिखलाने योग्य है । जिसके द्वारा श्रुतज्ञानसे जाने हुए अर्थका एकदेश जाना जाये वह नय है। श्रुतज्ञानसे जाने गये अर्थके दो अंश हैं- एक द्रव्य और एक पर्याय । जिनके द्वारा वे दोनों अंश सापेक्षरूपसे जाने जाते हैं वे दोनों नय हैं, यह सुनिश्चित है ।
यहाँ नयका सामान्य लक्षण और विशेष लक्षण बतलाया है । ' नीयतेऽनेन' - जिसके द्वारा जाना जाये उसे न कहते हैं । यह 'नय' शब्दकी व्युत्पत्ति है । क्या जाना जाये, यह तो शब्दकी सामर्थ्य से ही ज्ञात हो जाता है । वह है - श्रुतप्रमाणके द्वारा जाने गये विषयका एक अंश । यही नय सामान्यका विषय है । अतः उक्त लक्षण नय सामान्य का है । श्रुत प्रमाणके द्वारा जानी गयी वस्तुके दो अंश हैं- द्रव्य और पर्याय | अतः श्रुतप्रमाणसे जानी गयी वस्तुके द्रव्यरूप अंशको जो जानता है वह द्रव्यार्थिक नय है और पर्यायरूप अंशको जो जानता है वह पर्यायार्थिक नय है । ये दोनों नय विशेषके लक्षण हैं। इन दोनों लक्षणोंमें नय सामान्यका लक्षण सुसंगत होता है ।
अब शंका यह होती है कि गुणको जाननेवाला एक तीसरा गुणार्थिक नय भी कहना चाहिए। उसका समाधान करते हैं
यहाँ गुणसे सहभावी पर्याय ही विवक्षित है। अतः उसको जाननेवाला तीसरा गुणार्थिकनय नहीं है ।
पर्यायके दो प्रकार हैं- क्रमभावी और सहभावी । कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंको क्रमभावी कहते हैं, जैसे मनुष्य में होनेवाली बाल्य, कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ । और वस्तु के साथ सदा रहनेवाली पर्यायों को सहभावी कहते हैं । जैसे पुद्गलद्रव्यमें रहनेवाले स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । इसी तरह द्रव्यके भी दो प्रकार हैं - शुद्ध और अशुद्ध । अतः ' पर्याय ' शब्द से सब पर्याएँ गृहीत होती हैं और द्रव्य शब्दसे अपनी सब शक्तियोंमें व्याप्त द्रव्यसामान्यका ग्रहण होता है । अतः सहभावी पर्यायरूप गुण इन दो से पृथक नहीं है । गुण और
१. नयानां लक्षणं - मु० । २. 'स नो नयः' मु० । ३. साध्यपक्षिणी-मु० १ अ० ब० । ४. 'नीयेते तुकाभ्यां तुतो नयाविति निश्चिती' - मु० २ । ५ ' जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति जयवाया । जावइया णयवाया तावइया चैव परसमया ॥' -सन्मति० का० ३, गा० ४७ ।। ६. 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः ' - लघीयस्त्रय |
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