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नयविवरणम् विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादयः । तथातिविस्तरेणैतद्भेदाः संख्यातविग्रहाः ॥१९॥
द्रग्यार्थिकनयके तीन भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार । और पर्यायार्थिक नयके चार भेद हैं-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इस प्रकार विस्तारसे ये नैगम आदि सात भेद नयके हैं। तथा अतिविस्तारसे नयके संख्यात भेद हैं।
विशेषार्थ-पहले लिख आये हैं कि वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक है । द्रव्य, सामान्य, अभेद ये शब्द एकार्थवाची हैं और पर्याय, विशेष, भेद ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। जगत् न तो सर्वथा अभेदसे रहित केवल भेदरूप ही है और न तो सर्वथा भेदसे रहित केवल अभेदरूप ही है । परन्तु भेदाभेदरूप है। जब ज्ञाताकी दृष्टि वस्तुओंमें वर्तमान पारस्परिक भेदको छोड़कर केवल अभेदको विषय करती है,तब उस अभेद या सामान्यग्राही दृष्टिको द्रव्याथिकनय कहते हैं। और जब ज्ञाताकी दृष्टि भेदकी ओर झुकती है और द्रव्याथिकनयके द्वारा ग्रहण किये गये सत या द्रव्यरूप अखण्ड तत्त्वके जीव, अजीव आदि भेदोंका अवलम्बन लेती है तो उसे पर्यायाथिकनय कहते हैं। इस तरह संक्षेपमें मलनयके दो भेद हैं। इन दोनों नयोंमेंसे किसी भी एक नयके पक्ष में संसार और मोक्ष नहीं बनता, ऐसा 'सन्मतितर्कमें सिद्धसेनने कहा है। उनका कहना है कि यदि केवल द्रव्याथिकनयका पक्ष लें या केवल पर्यायाथिकनयका पक्ष लें. तो संसार नहीं घटता,क्योंकि द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमें आत्मा सर्वथा नित्य होनेसे अपरिवर्तनशील है और पर्यायाथिकनयकी दृष्टिमें सर्वथा क्षण-भंगुर है । आत्माको सर्वथा नित्य माननेपर सुख-दुःखका सम्बन्ध नहीं बनता, क्योंकि आत्माकी मानसिक वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिके कारण कर्मका बन्ध होता है और कषायके कारण बद्धकर्ममें स्थिति बंधती है। परन्तु केवल अपरिणामी आत्मामें यह सब संभव नहीं है। परिवर्तन माने बिना सुख-दुःखकी प्राप्ति, दुःखसे छुटनेके लिए प्रयत्न आदि बनता नहीं। इसी तरह सर्वथा अनित्य पक्षमें आत्मा जब क्षण-क्षण में नष्ट होकर नया-नया पैदा होता है तो जो कर्म करता है, वह आत्मा अन्य ठहरता है और जो कर्मफल भोगता है, वह अन्य ठहरता है। अतः बँधता कोई अन्य है बन्धसे छूटनेका प्रयत्न कोई अन्य करता है और मुक्ति किसी तीसरे को होती है। अतः दोनों ही नय माननीय हैं। दोनोंको सापेक्षतासे ही वस्तुका यथार्थ दर्शन होता है। क्योंकि पर्यायाथिककी दृष्टिमें सभी पदार्थ नियमसे उत्पन्न और नष्ट होते हैं और द्रव्याथिकनयको दृष्टिमें सभी पदार्थ सर्वदा न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं। किन्तु कोई भी वस्तु उत्पाद,विनाशसे रहित केवल ध्रुव नहीं है और न कोई वस्तु ध्रौव्यसे रहित मात्र उत्पाद विनाशशील ही है। उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य ये तीनों द्रव्यके लक्षण हैं। इनमेंसे द्रव्याथिकनय मात्र ध्रौव्यांशका ग्राहक है और पर्यायाथिकनय उत्पाद-व्ययरूप का । इसी बातको दूसरे रूपमें यों कहा जा सकता है कि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । न तो कोई वस्त केवल सामान्यात्मक होती है और न कोई वस्त केवल विशेषात्मक होती है। ऐसी वस्तस्थिति होनेपर जब विशेषरूपको गौण करके मुख्य रूपसे सामान्यरूपका ग्रहण किया जाता है तो वह द्रव्याथिकनय है । और जब सामान्य रूपको गौण करके प्रधान रूपसे विशेषको ग्रहण किया जाता है तो वह पर्यायार्थिकनय है। द्रव्यार्थिकनय के तीन भेद हैं-नैगम, संग्रह और व्यवहार तथा पर्यायार्थिकनयके चार भेद हैंऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इस तरह विस्तारसे नयके सात भेद हैं। इन सातोंमेंसे शुरुके चार नयोंको अर्थनय भी कहते हैं क्योंकि वे अर्थका आश्रय लेकर प्रवृत्त होते हैं। शेष तीन नयोंको शब्दप्रधान होनेसे शब्दनय कहते हैं । साधारणतया जैन ग्रन्थोंमें नयोंके इन सात भेदोंकी ही परम्परा मिलती है । क्योंकि न तो ये भेद अतिसंक्षिप्त हैं और न अतिविस्तृत है। यदि अतिविस्तारसे नयके भेदोंका कथन किया जाये
१. सन्मति तर्क काण्ड १, गाथा १७-२१ । २. सन्मति०, का० १, गा० ११-१२। ३. 'चत्वारोऽर्थनया ह्यते जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः ॥'-लघीयस्त्रय ।
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