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________________ २३४ परिशिष्ट सामान्यादेशतस्तावदेक एव नयः स्थितः । 'स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजनात्मकः ॥ १७ ॥ संक्षेपावौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ। द्रव्यार्थो व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततो परः ॥१८॥ आगे नयके भेद कहते हैं सामान्यकी अपेक्षासे नय एक ही है। स्याद्वाद श्रुतज्ञानके द्वारा गृहीत अर्थके नित्यत्व आदि धर्मविशेषों का कथन करनेवाला नय है। सामान्यकी अपेक्षासे नय एक है, क्योंकि सामान्य अनेक नहीं होता। पहले स्व और अर्थके एकदेशका निर्णय करनेवाले ज्ञानको नय कहा है। यहाँ नयका स्वरूप स्वामी समन्तभद्रके शब्दोंमें बतलाया है। स्वामी समन्तभद्रने श्रुतज्ञानके लिए स्याद्वाद'शब्दका प्रयोग किया है जैसे 'स्याद्वादकेवलज्ञाने' । चूँकि श्रुतज्ञान स्याद्वादमय होता है । 'स्याद्वाद' में दो शब्द हैं स्यात् और वाद । 'स्यात्' का अर्थ है कथञ्चित् या किसी अपेक्षा से । और वादका अर्थ है-कथन । अपेक्षा विशेषसे वस्तुके कहनेको स्याद्वाद कहते हैं। जैन सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। अनेकान्तात्मकका अर्थ है-अनेकधर्मात्मक । एक वस्तुमें अनेक धर्मोंका होना स्वाभाविक है जैसे आग जलाती है, पकाती है,आदि । किन्तु इस प्रकारके अनेक धर्मोंसे जैनधर्मका अनेकान्तपना कुछ भिन्न प्रकारका है। अनेकान्त एकान्तका प्रतिपक्षी है। वस्तु सत् ही है या असत् ही है, या नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकारको मान्यताको एकान्त कहते हैं । और इस प्रकारके एकान्तका निषेध करनेको अनेकान्त कहते हैं । अनेकान्त मतके अनुसार प्रत्येक वस्तु न केवल सत् ही है, न केवल असत् ही है, न केवल नित्य ही है और न केवल अनित्य ही है, किन्तु स्वरूपकी अपेक्षासे सत् है तो पररूपकी अपेक्षासे असत् है । द्रव्यदृष्टिसे नित्य है तो पर्यायदृष्टिसे अनित्य है । इस प्रकार परस्परमें विरोधी प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मोका समूहरूप होनेसे प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। इस अनेकान्तात्मक वस्तुको जानना तो सरल है, किन्तु उसका कथन करना कठिन है; क्योंकि ज्ञान एक साथ अनेकोंको जान सकता है, परन्तु शब्द एक साथ अनेक धर्मोंको नहीं कह सकता। अतः वक्ता किसी एक धर्मकी मुख्यतासे ही वस्तुका कथन करता है । परन्तु वस्तुमें वह एक ही धर्म नहीं है। इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म हैं। उन धर्मोंका सूचक 'स्यात्' शब्द प्रत्येक वाक्यके साथ सम्बद्ध रहता है। यथा-वस्तु स्यात् अस्ति (किसी अपेक्षासे है), स्यात् नास्ति (किसी अपेक्षासे नहीं है)। अतः अनेकान्तात्मक वस्तुके कहनेको स्याद्वाद कहते हैं। चूकि श्रुतज्ञानमें भी वस्तु स्वरूप अनेकान्त रूपसे प्रतिभासित होता है, अतः श्रुतज्ञान स्याद्वादरूप है । स्याद्वादरूप श्रुतज्ञानके द्वारा अर्थके धर्मोको पृथक्-पृथक् रूपसे या एक-एक करके प्रतिपादन जो करता है वह नय है । कहा भी है अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः। नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ॥ अनेक धर्मात्मक पदार्थके ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। उसके धर्मान्तर सापेक्ष एक अंशके ज्ञानको नय कहते हैं । और धर्मान्तरोंका निराकरण करके वस्तुके एक ही धर्मका कथन करनेवालेको दुर्नय कहते हैं । संक्षेपसे नयके भेद बतलाते हैं विशेषकी अपेक्षासे संक्षेपसे नयके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । जो द्रव्यको विषय करता है उसे द्वग्यार्थिकनय कहते हैं और जो पर्यायको विषय करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। १. सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ॥ १०६ ॥ - आप्तमीसांसा। २. अष्टसहस्रो, पृ० २९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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