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________________ २४० परिशिष्ट यद्वा नेक गमो योऽत्र स सतां नैगमो मतः। धर्मयोधर्मिणोऽपि विवक्षा धर्मधर्मिणोः ॥३५॥ प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः । इत्ययुक्तमिह ज्ञप्तेः प्रधानगुणभावतः ॥३६॥ प्राधान्येनोभयात्मानमर्थ गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ।।३७॥ संग्रहे व्यवहारे वा नान्तर्भावः समीक्ष्यते । नेगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः ।।३८।। वस्तुभूत पदार्थ सामने नहीं है,न तो वहां वह लकड़ी ही वर्तमान है जिसमें प्रस्थ बनानेका संकल्प चावल ही वर्तमान है जिसमें भातका संकल्प है । वहाँ तो केवल संकल्पमात्र है, उसीमें भावि वस्तुका व्यवहार किया जाता है। संकल्पका आधारभूत कोई पदार्थ वहां नहीं है । अतः नैगमनयमें और भाविसंज्ञा व्यवहारमें अन्तर है। अथवा 'नैकं गमो नेगमः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो दो धर्मों मेंसे या दो धर्मियोंमेंसे या धर्मधर्मी मेंसे विवक्षाके अनुसार केवल एकको नहीं जानता उसे सज्जनपुरुष नैगमनय कहते हैं। नैगम शब्दकी एक व्युत्पत्तिके अनुसार तो ऊपर उसका लक्षण बतलाया था, यहां उसकी दूसरी व्युत्पत्तिके अनुसार अर्थ किया है। जो दो धर्मोमेंसे या दो धर्मियोंमेंसे या दो धर्मधर्मियोंमेंसे केवल एकको न जानकर गौणता और मुख्यताको विवक्षासे दोनोंको जानता है वह नैगमनय है। इसको उदाहरणोंके द्वारा आगे ग्रन्थकार स्वयं स्पष्ट करेंगे। शंकाकारकी शंका और उसका समाधान शंकाकारका कहना है कि नैगमनय प्रमाणस्वरूप ही है, क्योंकि वह द्रव्य और पर्याय दोनोंका ग्राहक है । आचार्यका कहना है कि ऐसा कहना अयुक्त है-नैगमनय धर्म और धर्मोमेंसे एकको प्रधानरूपसे और दूसरेको गौणरूपसे जानता है। जो ज्ञान धर्म और धर्मी दोनोंको प्रधान रूपसे जानता है वह प्रमाण है, नय नहीं है, यह पहले विस्तारसे कहा है। प्रमाण और नैगमनयमें अन्तर है। प्रमाण द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुको प्रधान रूपसे जानता है। उसमें एक अंश गौण और दूसरा अंश मुख्य नहीं है। दोनों अंशात्मक वस्तु ही मुख्य हैं। किन्तु नैगमनयके विषयमें धर्म और धर्मीमेंसे एक मुख्य और दूसरा गौण होता है। यही दोनोंमें अन्तर है। इसलिए नैगमनयका अन्तर्भाव प्रमाणमें नहीं होता। संग्रहनय और व्यवहारनयमें मी नैगमनयका अन्तर्भाव नहीं देखा जाता,क्योंकि वे दोनों वस्तुके एक ही अंशको जानने में समर्थ हैं। प्रमाणसे नैगमनयमें भेद बतलाकर अब संग्रह और व्यवहारनय से उसको भिन्नता बतलाते हैं। संग्रह और व्यवहार नय भी वस्तुके एक-एक अंशको ही जानते हैं। जबकि नैगमनय दोनों अंशोंको गौण मुख्य करके जानता है । अतः उसका अन्तर्भाव संग्रह और व्यवहार नयमें नहीं होता । १. 'स हि त्रेधा प्रवर्तते, द्रव्ययोः पर्याययोर्द्रव्यपर्याययोर्वा गुणप्रधानभावेन विवक्षायां नैगमत्वात नैकं गमो नैगम इति निर्वचनात् ॥'-अष्टसहस्री पृ० २८७ । 'गुणप्रधानभावेन धर्मयोरेकर्मिणि । विवक्षा नैगमोऽत्यन्तभेदोक्तिः स्यात्तदाकृतिः ।।-लघीयस्त्रय । २. भावमीक्ष्य-अ० ब०, भावनमोक्ष्य-म०२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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