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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
जं सारं सारमज्झे जरमरणहरं जाणविट्ठीहि दिट्ठ । जं तच्चं तच्चभूदं परमसुहमयं सव्वलोयाण मज्झे ॥ जं भावं भावयंता भवभयरहियं जं च पावंति ठाणं । तं तच्च णाणभावं समयगुणजुदं सासयं सब्वकालं ॥ ४१८|| जइ इच्छह उत्तरिदु अण्णाण महोर्वाह सुलीलाए । ताणादु कुह मई यचक्के दुणयतिमिरमत्तण्डे ॥४१९ ॥ सुणिऊण दोहसत्थं सिग्धं हसिऊण सुहंकरो भणइ । एत्थ ण सोहइ अत्थो गाहाबंघेण तं भणह ॥४२०॥ दारियण्णयदणुयं परअप्पपरिक्ख तिक्खखरधारं । सव्वण्हविण्डुचिन्हं सुदंसणं णमह णयचक्कं ॥४२१॥ सुयकेवलीहिं कहियं सुयसमुद्दअमुदमयणाणं' । बहुभंगभंगुराविय विराइअं णमह णयचक्कं ॥४२२॥
_ज्ञानचक्षु महापुरुषोंके द्वारा परमार्थके मध्य में भी जो जरा और मृत्युको दूर करनेवाला 'सार' देखा गया है, सब लोकोंके मध्य में जो परमसुखमय तत्त्व तत्त्वभूत है, जिस भावकी भावना करके जीव संसार भयसे रहित स्थान ( मुक्ति ) को प्राप्त करते हैं वह तत्त्व एकत्वगुणसे युक्त ज्ञानभाव है, वह सदा स्थायी है ||४१८||
आगे प्रकृत नयचक्र ग्रन्थको उपयोगिता ओर रचनाके सम्बन्धमें कहते हैं
यदि लीलामात्र से अज्ञानरूपी समुद्रको पार करनेकी इच्छा है तो दुर्नयरूपी अन्धकार के लिए सूर्य के समान नयचक्रको जानने में अपनी बुद्धिको लगाओ ||४१९॥
[ गा० ४१८
दोहोंमें रचित शास्त्रको सुनते ही शुभंकर हँस दिया और बोला - इस रूपमें शोभा नहीं देता । गाथाओंमें इसकी रचना करो ॥४२०||
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यह सुदर्शन नयचक्र दुर्नयरूपी देत्यका विदारण करनेवाला है, स्व और परकी परीक्षारूपी तीक्ष्ण कठोर उसकी धार है, यह सर्वज्ञरूपी विष्णुका चिह्न है । इसे नमस्कार करो ।। ४२१॥
यह ग्रन्थ
विशेषार्थ - विष्णु का सुदर्शनचक्र प्रसिद्ध है, उस चक्रकी धार अत्यन्त तीक्ष्ण थी, उससे विष्णुने दैत्योंका वध किया था ऐसी मान्यता विष्णुके सम्बन्धमें है । उसी सुदर्शन चक्रसे ग्रन्थकारने इस नयचक्रकी उपमा दी है । इस नयचक्रके द्वारा वस्तु स्वभावको जाननेसे हो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है इसलिए इसे भी सुदर्शन नाम दिया गया है । सुदर्शनचक्र विष्णुका चिह्न था, यह नयचक्र सर्वज्ञका चिह्न है । सर्वज्ञने साक्षात् प्रत्यक्ष केवलज्ञानके द्वारा वस्तुत्वको अनेक धर्मात्मक जानकर उसके अनेक धर्मों में से एक-एक धर्मको जानने के रूपमें नयचक्रकी व्यवस्था की है । विष्णु के सुदर्शनचक्रने दैत्यका वध किया था । सर्वज्ञका यह नयचक्र दुर्नयोंका घातक है। एक-एक नयको ही ठीक मानकर उसीको सत्य मानना दुर्नय है । नयचक्रकी तीक्ष्णधार है उसका स्व और परकी परीक्षा में सक्षम होना । नयोंके द्वारा वस्तुका विवेचन करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुका असली गुणधर्म क्या है और आरोपित गुणधर्म क्या है ? ऐसा होनेसे स्वका ग्रहण और परका त्याग करता है । ऐसा यह नयचक्र आदरणीय है इसका सम्यक्रीतिसे अध्ययन करके तदनुसार वस्तुस्वरूपकी श्रद्धा करना चाहिए ।
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श्रुतवलीके द्वारा कहे गये, श्रुतरूपी समुद्रका आलोडन करके निकाले गये अमृतमय भंगों से ज्ञानरूप और बहुभंगरूपो सुशोभित नयचक्रको नमस्कार करो ||४२२||
१. समुद्द मुद्दाअ मुद्दमयमाणं ज० । समुद्दअमुद्दमयमाणं आ० ।
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