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-४१७] नयचक्र
२०५ सर्वेषामस्यैवोत्कृष्टत्वमस्यैवोपासनया दोषामावं च दर्शयति
एवं पिय परमपदं सारपवं सासणे पढिदं ।
एवं विय थिररूवं लाहो' अस्सेव णिव्वाणं ॥४१३॥ कथमन्यथोक्तम्--
एदह्मि रदो णिच्चं संतुट्ठो होदि णिच्चमेदेण । एदेण होदि तित्तो तो हवदि हु उत्तमं सोक्खं ॥४१४॥ एदेण सयलदोसा जोवे णसंति रायमादीयां ।
मोत्त विविहविभावं एत्थेवय संठिया सिद्धा ॥४१५॥ परमार्थपरिज्ञानपरिणतिफलमुपदिशति
णादूण समयसारं तेण पयत्तयंपि ज्झाइदं चेव ।
"समरसिभूदो तेण य सिद्धो सिद्धालयं जाइ ॥४१६॥ नयचक्रकर्तृत्वहेतुमाह
लवणं व इणं भणियं णयचपक सयलसत्थसुद्धियरं। सम्मा वि य सुअ मिच्छा जीवाणं सुणयमग्गरहियाणं ॥४१७॥
इति निश्चर्यचारित्राधिकारः । सबमें वही उत्कृष्ट है उसीकी उपासनासे दोषोंका अभाव होता है यह बतलाते हैं
जिन शासनमें उस परमपारिणामिक भावको ही परमपद और सारभूत पद कहा है। वही सदा अविनाशी और स्थायी है उसीकी प्राप्तिको निर्वाण कहते हैं ।।४१३॥
यदि ऐसा न होता तो क्यों ऐसा कहा गया है
जो इस परमपारिणामिकभावस्वरूप शुद्धचैतन्यस्वरूपमें लीन रहता है वह सदा सन्तुष्ट रहता है, सदा तृप्त रहता है इसीसे उत्तम सुख प्राप्त होता है ॥४१४॥
इसीसे जीवमें समस्त रागादि दोष नष्ट होते हैं। अनेक प्रकारके विभावोंसे छुटकर सिद्ध जीव इसी अपने परमपारिणामिकस्वरूप शुद्ध चैतन्यमें स्थित हैं ॥४१५॥
आगे परमार्थज्ञानरूप परिणतिका फल कहते हैं
समयसारको जानकर (जिसने परमपारिणामिक भाव स्वरूप वीतरागचारित्रको अपनाया उसने ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका भी ध्यानकर ही लिया। उसीके साथ एकमेक होकर सिद्धजीव सिद्धालयमें जाते हैं अर्थात् शुद्ध चैतन्य स्वरूप जीवत्वको प्राप्त होकर मुक्त होते हैं ।।४१६॥
नयचक्रकी रचनाका हेतु कहते हैं
जैसे लवण ( नमक ) सब व्यंजनोंको शुद्ध कर देता है-सुस्वादु बना देता है वैसे ही समस्त शास्त्रोंकी शुद्धि के कर्ता इस नयचक्रको कहा है। सुनयके ज्ञानसे रहित जीवोंके लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्या हो जाता है॥४१७।।
निश्चयचारित्राधिकार समाप्त हुआ।
१. लाहे ख० । २. मोत्तूण विविहभावं अ० क० ख० मु.। ३. तेणेव य तं पि ज्झाइदु भ० ० ख० ज. मु०। ४. समरसिभूदा तेण य सिद्धा सिद्धालयं जंति मु०। ५. व सयल म-अ० । व एस भ-क० ख० । ६. वीतरागचारित्राधिकारः ज०।
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