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________________ २०४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०४०९ विपक्षद्रव्यस्वभावाभावत्वेन भावना मझ सहावं णाणं दंसण चरणं ण कोवि आवरण' । - जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥४०९॥ विशेषगुणप्रधानत्वेन भावना घाइचउक्कं चत्ता संपत्त परमभावसभावं। जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥४१०॥ स्वस्वभावप्रधानत्वेन मावना-'सामान्यतद्विशेषाणां ध्यानं समर्थितं भवति इत्याह सामण्णणाणझाणे विस्सेसं मुणसु झाइयं सव्वं । तत्थ ट्ठिया विसेसा इदि तं वयणं मुणेयन्वं ॥४११॥ विशेषाणामुत्पत्तिविनाशयोः सामान्ये दृष्टान्तमाह उप्पादो य विणासो गुणाण सहजेयराण सामण्णे । जल इव लहरीभूदो णायव्वो सव्वदव्वेसु ॥४१२।। से परमें आत्मबुद्धि नहीं होती और आत्मामें ही आत्मबुद्धि होनेसे आत्मतल्लीनता बढ़ती है , उसीका नाम वस्तुतः चारित्र है। आगे विपक्षी द्रव्यके स्वभावका अभाव रूपसे भावना कहते हैं मेरा स्वभाव ज्ञान, दर्शन, चारित्र है। कोई भी आवरण मेरा स्वभाव नहीं है । इस प्रकार मैं वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदनके द्वारा ग्रहण किया जाता है ॥४०९॥ विशेष गुणोंकी प्रधानतासे भावना कहते हैं चार घातिया कर्मोको नष्ट करके परम पारणामिक स्वभावको प्राप्त मैं वही ज्ञाता आत्मा हैं जो स्वसंवेदनके द्वारा ग्रहण किया जाता है ।।४१०॥ आगे स्व-स्वभावकी प्रधानतासे भावनाका कथन करते हुए कहते हैं कि सामान्यके ध्यानमें उसके विशेषोंके ध्यानका समर्थन होता है सामान्य ज्ञानका ध्यान करने पर समस्त विशेषोंका ध्यान हुआ समझना चाहिए। क्योंकि विशेष सामान्य में हो गभित है ,ऐसा शास्त्रका कथन है ॥४११॥ विशेषार्थ-अपने चैतन्य स्वरूपका ध्यान करनेमें चैतन्यके अन्तर्गत जो ज्ञान, दर्शन, सुख आदि विशेष गुण हैं | उन सभीके ध्यानका समावेश हो जाता है। क्योंकि सामान्यमें उसके सभी विशेष आ जाते आगे सामान्यमें विशेषोंकी उत्पत्ति और विनाशके सम्बन्धमें दृष्टान्त देते हैं सामान्य चैतन्य स्वरूप में स्वाभाविक गुणोंका उत्पाद और वैभाविक गुणोंका विनाश होता है । जैसे जलमें तरंग उठने पर पहले की तरंगोंका विनाश और नवीन तरंगोंकी उत्पत्ति होती है। ऐसा सब द्रव्योंमें जानना चाहिए ।।४१२।। विशेषार्थ -सभी द्रव्योंमें प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रुवपना होता है । सत्का स्वरूप ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है । प्रतिक्षण पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति होनेके साथ ही द्रव्यका स्वभाव ध्रव रहता है। जैसे जलमें तरंगें उठने पर एक लहर जाती है और एक लहर आती है, किन्तु जल जल ही रहता है। इसी तरह जीवमें ध्यानादिके द्वारा वैभाविक रागादि भावोंका विनाश होता है और स्वाभाविक गुणोंका उत्पाद होता है किन्तु परमपारिणामिकभाव शुद्ध जीवत्व ध्रुव रहता है। उसीका ध्यान करनेसे रागादि विकार नष्ट होते हैं। १. सामान्यध्यानविशेषज्ञानं सथि-अ० क. ख० ज०। २. लहरीभूया णायव्वा आ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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