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नयचक्र
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चारित्रफलमुद्दिश्य तस्यैव वृद्धयर्थ भावनां प्राह
मोक्खं तु परमसोक्खं जीवे चारित्तसंजुदे दिटुं। वट्टइ तं जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे ॥४०५।। रागादिभावकम्मा मज्झ सहावा ण कम्मजा जरा।
जो संवेयणगाही सोहं णावा हवे आदा ॥४०६॥ विमावस्वभावाभावत्वेन भावनामाह
परभावादो सुण्णो संपुण्णो जो हु होइ सम्भावो।
जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥४०७॥ सामान्यगुणप्रधानत्वेन भावनाउक्तंच--
निश्चयो दर्शनं पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगशिवाश्रयः॥ एवमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा । कोऽवकाशो विकल्पानां तत्राखण्डेकवस्तुनि ॥-एकत्व सप्ततिः १४-१५ जडसम्भावं णहु मे जरा तं भणिय जाण जडदव्वे। जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥४०८॥
आगे चारित्रका फल बतलाकर उसीको वृद्धि के लिए भावना कहते हैं
चारित्रसे युक्त जीवमें परम सौख्यरूप मोक्ष पाया जाता है और वह चारित्र निरन्तर भावनामें लीन मुनि समुदायमें पाया जाता है ॥४०५।। रागादि भावकर्म मेरे स्वभाव नहीं हैं क्योंकि वे तो कर्मजन्य हैं। मैं तो ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदनके द्वारा जाना जाता है अर्थात् इस प्रकार भावना निरन्तर भानेवाले मुनियोंमें ही चारित्र पाया जाता है ॥४०६॥
आगे विभावरूप स्वभावके अभावकी भावना कहते हैं
जो परभावसे सर्वथा रहित सम्पूर्ण स्वभाववाला है, वही मैं ज्ञाता आत्मा हूँ: स्वसंवेदनसे जिसका ग्रहण होता है ॥४०७।।
सामान्य गुणकी प्रधानतासे भावना कहते हैंकहा भी है
आत्माका निश्चय सम्यग्दर्शन है, आत्माका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्मामें स्थिति सम्यक्चारित्र है और तीनोंका योग मोक्षका कारण है । अथवा शुद्ध निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन आदि तीनों एक चैतन्यस्वरूप ही हैं। क्योंकि एक अखण्ड वस्तुमें विकल्पोंको स्थान नहीं है।
__ मेरा जड़स्वभाव नहीं है क्योंकि जड़स्वभाव तो जड़ द्रव्य-अचेतन द्रव्यमें कहा है।मैं तो वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदनके द्वारा ग्रहण किया जाता है ॥४०८॥
विशेषार्थ-चारित्र धारण करनेके पश्चात् उसकी वृद्धि के लिए साधुको उक्त भावना करते रहना चाहिए कि मैं ज्ञाता-द्रष्टा हूँ। 'मैं हूँ' इस प्रकारके स्वसंवेदन-स्वको जाननेवाले ज्ञानके द्वारा मेरा ग्रहण होता है। यह विशेषता चेतनद्रव्यके सिवाय अन्य किसीभी अचेतन द्रव्यमें नहीं है। अचेतन द्रव्य न स्वयं अपनेको जान सकता है और न दूसरोंको जान सकता है । अचेतन द्रव्य पौद्गलिक कर्मोंके संयोगसे जो रागादि भाव मेरेमें होते हैं, वे भी मेरे नहीं हैं. वे तो कर्मका निमित्त पाकर होते हैं। इस प्रकारका चिन्तन करते रहने
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