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नयचक्र
सियसद्दसुण यदुण्णय दणु देहविदारणेक्कवरवीरं तं देवसेणदेवं णयचक्कयरं गुरु णमह ॥४२३॥ दव्वसहावपयासं दोहयबंधेण आसि जं दिट्टं । तं गाहाबंध इयं माइल्ल धवलेण ॥४२४॥
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'सुसमीरणेण पोयंपेरयं संतं जहा तिरण । सिरिदेवसेणमुणिणा तह णयचक्कं पुणो रइयं ॥ ४२५॥
स्यात् शब्दसे युक्त सुनयके द्वारा दुर्नयरूपी दैत्यके शरीरको विदारण करने में एकमात्र श्रेष्ठ वीर नयचक्र के कर्ता उन देवसेन नामक गुरुदेवको नमस्कार करो ॥४२३॥
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विशेषार्थ - वस्तु के एक धर्मको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं । जो नय अन्यधर्म सापेक्ष होता है वह सुनय है और जो नय अन्य धर्मोका निराकरण करता है वह दुर्नय है । नयचक्र नामक ग्रन्थकी रचना देवसेनाचार्य ने की थी ।
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जो द्रव्य स्वभाव प्रकाश दोहाओंमें रचा हुआ देखा गया, माइल्लधवलने उसे गाथाबद्ध किया ||४२४||
जैसे अनुकूल वायुके द्वारा प्रेरित हुआ जहाज तैरने में समर्थ होता है, वैसे ही श्री देवसेन मुनिने नयचक्रको पुनः रचा ॥४२५॥
१. गाहाबंघेण पुणो र-अ० क० ख० मु० । २. महल्लदेवेण भ० क० मु० । देवेसेणशिष्येण इति टिप्पणी ज० प्रती । ३. दुसमीरणाय विणिवापयाण सिरिदेवसेणजोईणं । तेसि पायपसाए उवलद्धं समग्गतच्चेण ॥४५४॥ अ० क० । दुसमीरपोग्रमिवाययाण ( शेषं उपरिवत् ) - ख० ज० । ज प्रतौ टिप्पणे पाठान्तररूपेण लिखितं - दुसमीरणेण पोयं पेसियं संतं जहा तिरंनदूं । सिरिदेवसेण मुणिणा तह नयचक्कं पुणो रइयं ॥४५३ ॥
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