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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० ४०१ - दृष्टान्तद्वारेण पारिणामिकस्वमावस्यात्मबुद्धेनिश्चयदर्शनमाह
सम्मगु पेच्छइ जह्मा वत्थुसहावं च जेण सद्दिट्ठी ।
तह्मा तं णियरूवं मज्झत्थ णियउ जेण सद्दिट्ठी ॥४०१॥ स्वस्थतयात्मनः स्वलामं स्वचरणोपायं चाह
जीवो ससहावमओ कहं वि सो चेव जादपरसमओ।
जुत्तो जइ ससहावे तो परभाव खु मुंचेवि ॥४०२॥ उक्तंच
जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओथ परसमओ। जइ कुणई सगसमयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो॥ पञ्चास्ति० गा० १५५ ।
दृष्टान्तके द्वारा पारिणामिक स्वरूप आत्मबुद्धिके निश्चयदर्शनको कहते हैं
यतः सम्यक् दृष्टिवाला मनुष्य वस्तुके स्वरूपको सम्यक् रीतिसे देखता है इसलिए मध्यस्थ होकर उस आत्मस्वरूपका अवलोकन करो जिससे सम्यग्दृष्टि होता है ॥४०१॥
विशेषार्थ-जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है वह वस्तुका यथार्थ स्वरूप देखता है इसलिए वस्तुके यथार्थ स्वरूपको देखनेके लिए सम्यग्दृष्टि होना आवश्यक है, उसके विना वस्तुके यथार्थ स्वरूपके पर्शन नहीं होते ।
और सम्यग्दृष्टि बननेके लिए आत्मस्वरूपको देखना जरूरी है वह भी मध्यस्थ बनकर-राग-द्वेषको त्यागकर । सम्यग्दर्शनके बिना न तो ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, और न सम्यक्चारित्र होता है। ज्ञान और चारित्रकी सचाई सम्यग्दर्शनपर ही निर्भर है। और सम्यग्दर्शनपर निर्भर होनेका कारण यह है कि सम्यग्दर्शनको उपस्थितिमें वस्तुके स्वरूपका यथार्थ प्रतिभास होता है। मिथ्यादर्शनकी उपस्थितिमें जो हेय और उपादेयमें विपरीत बुद्धि रहती है जो हेय है उसे उपादेय मानता है और जो उपादेय है उसे हेय मानता है, वह दूर हो जाती है। उसके दूर होनेपर हेयमें हेय बुद्धि और उपादेयमें उपादेय बुद्धि होती है तभी ज्ञान और आचरण ठीक दिशामें होनेसे सम्यक् कहे जाते हैं। यह तभी सम्भव है जब आत्मा और अनात्माका भेदज्ञान होकर आत्मस्वरूपको यथार्थ प्रतीति होती है उसीका नाम सम्यग्दर्शन है।
आगे स्वस्थ होनेसे हो आत्मा आत्मलाभ करता है, यह दर्शाते हुए आत्मामें आचरण करनेका उपाय बतलाते हैं
जीव अपने स्वभावमय है, वही किसी प्रकार परसमयरूप हो गया है। यदि वह अपने स्वभावमें युक्त हो जाये-लीन हो जाये तो परभावको छोड़ देता है-परभावसे छूट जाता है ॥४०२॥
कहा भी है
जोव स्वभावनियत होनेपर भी यदि अनियत गुणपर्यायवाला है तो पर समय है। यदि वह स्वसमय को करता है तो कर्मबन्धसे छूट जाता है।
विशेषार्थ-संसारी जीवोंमें दो प्रकारका चारित्र पाया जाता है, एक का नाम स्वचारित्र है और दूसरेका नाम परचारित्र है। स्वचारित्रको स्वसमय और परचारित्रको परसमय भी कहते हैं। समय नाम जीव पदार्थका है। वह जीवपदार्थ उत्पाद व्ययध्रौव्यमयो सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमय चेतनास्वरूप है, गुणपर्याययुक्त है। यद्यपि वह अन्य द्रव्योंके साथ एकक्षेत्रावगाहरूपसे स्थित है किन्तु अपने असाधारण चैतन्यस्वरूपको नहीं छोड़ता। जब वह अपने स्वभावमें स्थित होता है तो उसे स्वसमय कहते हैं और जब वह पौदगलिक कर्म प्रदेशोंमें स्थित हआ राग-द्वेष मोहरूप परिणमन करता है तब वह परसमय है। इसका
१. मज्झत्थं तेण मुणउ सद्दिट्टी मु० । मज्झत्थं मुणउ जेण सद्दिट्ठी ख. ज. प्रती गाथा नास्ति ।
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