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नयचक्र
ध्यानप्रत्ययेषु सुखप्रत्ययस्य स्वरूपमाह
लक्खणदो णियलक्खं ज्झायंतो ज्झाणपच्चयं लहइ । सोक्खं गाणविसेसं लद्धोरिद्धीण परिमाणं ॥ ३९९ ॥ इंदियमणस्स पसमज आदुत्थं तहय सोक्ख चउभेयं । लक्खणदो जियलक्खं अणुहवणे होइ आदुत्थं ॥४०० ॥
विशेषार्थ - ज्ञान आत्माका स्वाभाविक गुण है । किन्तु स्वाभाविक गुण होनेपर भी संसार अवस्थामें अनादिकालसे वह गुण आवरणसे वेष्टित है, ढका हुआ है। ज्ञानको ढाँकनेवाले ज्ञानावरण कर्म और वोर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेपर ही वह ज्ञानगुण संसारी जीवोंके यथायोग्य प्रकट होता है । और उक्त ahar सर्वथा क्षय हो जानेपर पूर्णरूपसे प्रकट होता है । इसीसे स्वाभाविक होते हुए भी ज्ञानको क्षायोपशमिक और क्षायिक भावमें गिनाया है, पारिणामिक भावमें नहीं गिनाया । वस्तुके एक अंशके ग्रहणको नय कहते हैं अतः नय भी क्षायोपशमिक ज्ञानरूप ही है । यह अवस्था कर्मजन्य है । इसलिए इसे ज्ञायकभाव नहीं कह सकते । ज्ञायकभाव तो शुद्ध होता है जैसा कि समयसार गाथा ७ में कहा है कि परमार्थ से देखा जाय तो जो एक द्रव्यके द्वारा पिये गये अनन्त पर्यायरूप एक वस्तुका अनुभव करनेवाले ज्ञानी जनोंकी दृष्टिमें दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं केवल एक शुद्धज्ञायकभाव ही है वह शुद्ध चैतन्य स्वरूप है उसीका अवलम्बन मोक्षका मार्ग है । ऊपर जो कर्मजन्य लब्धि और उपयोगको भी स्वभाव कहा है वह व्यावहारिक दृष्टि कहा है ।
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आगे ध्यान प्रत्ययों में सुख प्रत्ययका स्वरूप कहते हैं
लक्षणके द्वारा निजलक्ष्यका ध्यान करनेवाला ध्यान प्रत्ययको प्राप्त करता है। सुख ज्ञानविशेष है " ॥३९९॥
विशेषार्थ - आत्माका लक्षण पहले कह आये हैं उस लक्षणके द्वारा लक्ष्य आत्माको पहचानकर उसीमें मनको एकाग्र करनेसे ध्यान होता है । उस ध्यानसे पारमार्थिक सुख प्राप्त होता है । सुख ज्ञान विशेष हो है । 'मैं सुखी' इस प्रकारको अनुभूतिके बिना सुखानुभूति नहीं होती ।
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सुखके भेद
सुखके चार भेद हैं- इन्द्रियजन्य, मानसिक, प्रशमजन्य और आत्मसे उत्पन्न सुख । लक्षणके द्वारा निजलक्ष्यका अनुभव करनेपर आत्मिक सुख होता है ||४००॥
विशेषार्थ - मनकी रतिसे जो आनन्दको अनुभूति होती है उसे सुख कहते हैं । इस सुखके चार प्रकार हैं । इन्द्रियोंके इष्ट विषयोंमें प्रवृत्त होनेपर जो आनन्द होता है वह इन्द्रियजन्य सुख है । मनको किसी अभिलाषा की पूर्ति होनेपर जो मानसिक आनन्द होता है वह मानसिक सुख है । रागादिकी निवृत्ति होनेपर जो आनन्द होता है वह प्रशमज सुख है और बाह्य विषयोंसे निरपेक्ष स्वात्मसंचेतनसे जो आनन्द होता है वह आत्मिक सुख है । आत्मिक सुखकी प्राप्ति आत्माको जानकर उसका अनुभवन करनेपर ही होती है । इनमें से आत्मोत्थ सुख ही उपादेय है क्योंकि वह सुख स्वाधीन है, अविनाशी है, उसका कोई प्रतिपक्षी नहीं है, उसमें हानि, वृद्धि नहीं होती । किन्तु इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न सुख पराधीन होनेसे कभी होता है और कभी नहीं होता, उसका प्रतिपक्षी दुःख होता है, सदा घटता-बढ़ता है अतः वह हेय है, क्योंकि जो सुख पराधीन है, खानेपीने और मैथुन आदिको तृष्णासे युक्त होनेसे आकुलतामय है, जिसके भोगनेसे नवीन कर्मका बन्ध होता है, जिसके साथ दुःख भी मिला रहता है ऐसा सुख वस्तुतः सुख नहीं है किन्तु दुःख ही है ।
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