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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ३९६ -
एवं गृहीतस्यात्मनो' ध्येयोत्थभेदमावनां करोति
अहमेक्को खलु परमो भिण्णो कोहादु जाणगो होमि । एवं एकीभूदे परमाणंदी भवे चेदा ॥३९६॥ माणो य माय लोहो सुक्खं दुक्खं च रायमादीणं ।
एवं भावणहेऊ गाहाबंधेण कायव्वं ॥३९७॥ कर्मजस्वाभाविकं मावं मावयति
वत्थूण अंसंगहणं णियत्तविसयं तहेव सावरणं ।
तं इह कम्मे जणियं णहु पुण सो जाणगो भावो ॥३९८॥ उक्तं च
सो इह भणिय सहाओ जो हु गुणो पारिणामिओ जीवे । लद्धी खओवसमदो उवओगो तं पि अत्थगहणेण ॥१॥
___ इस प्रकार लक्षणके द्वारा ग्रहण को गयो आत्माके ध्येयरूप होनेसे उत्पन्न हुई भेदभावनाको व्यक्त करते हैं
मैं क्रोध आदिसे भिन्न एक परमतत्त्व हूँ, मैं केवल ज्ञाता हूँ। इस प्रकारकी एकत्व भावना होने पर आत्मा परमानन्दमय होता है। इसी तरह भावनाके लिए मान, माया, लोभ, सुख-दुःख और रागादिको भी लेकर गाथा-रचना करना चाहिए ।। ३९६-३९७ ॥
विशेषार्थ-जब लक्षणके द्वारा आत्माको ग्रहण कर लिया तो उसके ध्यानके लिए इस प्रकारको भेदभावना होती है कि न मैं क्रोधरूप हूँ, न मानरूप हूँ, न मायारूप हूँ, न लोभरूप हूँ, न सुख-दुःख रूप हूँ और न रागादि रूप हूँ-ये सब तो पुद्गलके विकार है। जब तक इस प्रकारको भेद-भावना नहीं होती, तब क जैसे यह आत्मा आत्मा और ज्ञानमें भेद न मानकर निःशंक होकर ज्ञानमें प्रवत्ति करता है और जानतादेखता है, वैसे ही अज्ञानवश आत्मा और क्रोधादि भावोंमें भी भेद न मानकर निःशंक होकर क्रोधादि करता है और ज्ञानादिकी तरह क्रोधादिको भी अपना स्वभाव मानकर राग-द्वेष करता है। इस प्रकार अज्ञानवश क्रोधादिरूप परिणाम करनेसे उन परिणामोंको निमित्तमात्र करके स्वयं ही पौद्गलिक कर्म संचित हो जाते है,और इस तरह जीव और पुद्गलका परस्पर अवगाहरूप बन्ध होता है। किन्तु जब यह जीव क्रोध और ज्ञानके भेदको समझ लेता है कि ज्ञान आत्माका स्वभाव हैक्रोधादि आत्माका स्वभाव नहीं है, ज्ञान और क्रोधादिका परिणमन भिन्न-भिन्न है। ज्ञानका परिणमन ज्ञानरूप ही है:क्रोधादि रूप नहीं है। ज्ञानके होनेपर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है और क्रोधादिके होनेपर क्रोधादिक हुए ही प्रतीत होते हैं। दोनोंमें एकवस्तुता नहीं है । इस प्रकार भेदविज्ञान होनेपर आत्माका एकत्वका अज्ञान मिट जाता है और इस तरह अज्ञानमूलक बन्धका निरोध होनेपर आत्मा परमानन्दकी ओर बढ़ते-बढ़ते परमानन्दमय हो जाता है।
कर्मजन्य स्वाभाविक भावको कहते हैं
वस्तुके अंशका जो ग्रहण ( ज्ञान ) नियत विषयको लिये हुए आवरण सहित होता है ,वह (ज्ञान) कर्मजन्य है, वह ज्ञायक भाव नहीं हैं ॥३९८।।
कहा भी है
जीवमें जो पारिणामिक ( स्वभावसिद्ध ) गुण होता है , उसे यहां स्वभाव कहा है। लब्धि तो क्षयोपशमरूप है और अर्थके ग्रहणका नाम उपयोग है।
१. नो व्याप्त्या भे-अ० का ख० ज०म०। २. रायमादीया-अ० क० ख० ज०म० ।।
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