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नयचक्र
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लक्खणदो तं गेण्हसुचेदा सो चेव होमि अहमक्को। उदयं-उवसम-मिस्सं भावं तं कम्मणा जणियं ॥३९२॥ लक्खणदो तं गेण्हसुणादा सो चेव होमि अहमैक्को। उदयं-उवसम-मिस्सं भावं तं कम्मणा जणियं ॥३९३॥ लक्खणदो तं गेण्हसु बट्टा सो चेव होमि' अहमेक्को । उदयं-उवसम-मिस्सं भावं तं कम्मणा जणियं ॥३९४॥ लक्खणदो तं गेण्हसु उवलद्धा चेव होमि अहमैक्को। उदयं-उवसम-मिस्सं भावं तं कम्मणा जणियं ॥३९५।।
विशेषार्थ-श्रुतज्ञानके द्वारा पहले आत्माको जानना चाहिए। शास्त्र स्वाध्याय करनेसे आत्माका ज्ञान हो जाता है । जिसे हम जानना चाहते है,वह लक्ष्य होता है और जिस चिह्लादिके द्वारा उस लक्ष्यको पहचाना जाता है उन्हें लक्षण कहते हैं। जैसे आत्माका लक्षण चैतन्य है और चेतना ज्ञानदर्शनरूप है। अतः उसके द्वारा आत्माकी पहचान होती है कि जो जानता-देखता है वह आत्मा है। मैं हूँ' इस प्रकारका जो स्वसंवेदन-अपना ज्ञान होता है, उसीसे आत्माका ग्रहण होता है। अतः स्वसंवेदनसे आत्माको ग्रहण करके उसीका ध्यान करना चाहिए । ध्यानसे तल्लीनता होनेपर आत्माका आभास होता है। यह प्रारम्भिक आभास ही आगे प्रत्यक्षरूपमें परिणत हो जाता है, जैसे स्वसंवेदन ही केवलज्ञान रूपमें विकसित होता है।
आगे लक्षणसे आत्माको ग्रहण करनेका उपाय बतलाते है
लक्षणसे उस आत्माको ग्रहण करो कि जो चैतन्यस्वरूप है,वही मैं हूँ। जो औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव हैं, वे सब कर्मजन्य हैं । लक्षणसे उस आत्माको ग्रहण करो कि जो यह ज्ञाता है,वही में हूँ। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव तो कर्मजन्य हैं। लक्षणसे उस आत्माको ग्रहण करो कि जो द्रष्टा है,वही मैं हूँ। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव तो कर्मजन्य हैं। लक्षण से उस आत्माको ग्रहण करो कि जो यह उपलब्ध है,वही मैं हूँ। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव तो कर्मजन्य हैं ।।३९२-३९५॥
विशेषार्थ-आत्मा का लक्षण तो चेतना, उपलब्धि, ज्ञान-दर्शन आदि ही हैं। ऊपर जो पांच भाव बतलाये हैं उनमें से क्षायिक और पारिणामिक भाव ही वस्तुतः जीवके स्वलक्षणरूप हैं। शेष तीनों भाव तो कर्मजन्य हैं । औदयिकभाव तो कर्मके उदयसे होता है। अतः वह तो जीवका स्वलक्षण हो ही नहीं सकता। कर्मके उपशम और क्षयोपशम से होनेवाले भाव भी वस्तुतः कर्मनिमित्तक ही हैं। दोनोंमें कर्मको सत्ता वर्तमान रहती है, तभी वे होते हैं। ऐसे कर्मनिमित्तक भावोंको जीवका स्वलक्षण नहीं कहा जा सकता। अतः वे शुद्धजीवके लक्षण नहीं हैं। उन भावोंको जीवका मानकर उनका ध्यान करना तो संसारका ही कारण है । अतः शुद्धजीवके लक्षणोंके द्वारा ही उसे ग्रहण करना चाहिए। अशुद्धजीवके लक्षणोंके द्वारा तो अशुद्ध जीवका ही ग्रहण हो सकता है और उसका ध्यान तो संसारका ही कारण है।
१. 'पण्णाए पित्तन्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परोत्ति णायव्वा ॥२९७॥ पण्णाए घितव्वो जो दट्टा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायब्वा ॥२९८॥ पण्णाए धितव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेति णादव्वा ॥२९९॥-समयसार ।
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