________________
२०१
-४०३]
नयचक्र सुहअसुहभावरहिओ सहावसंवेयणेण वर्सेतो।
सो णियचरियं चरवि हु पुणो पुणो तत्थ विहरंतो ॥४०३॥ सरागवीतरागयोः कथंचिदविनामावित्वं च वदति
जं विय सरायकाले भेदुवयारेण भिण्णचारितं ।
तं चेव वीयराये विवरीयं होइ कायव्वं ॥४०४॥ उक्तं च आगमे
चरियं चरदि सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा। दसणणाणवियप्पो अवियप्पं चौविअप्पादो॥–पञ्चास्ति०,गा० १५९ ।
स्पष्टीकरण यह है कि यद्यपि प्रत्येक संसारो जीव द्रव्य अपेक्षासे ज्ञानदर्शनमें अवस्थित होनेके कारण स्वभावमें स्थित है.तथापि जब अनादि मोहनीय कर्मके उदयका अनुसरण करके अशुद्ध उपयोगवाला होता है, तब वह परसमय या परचरित्र होता है । वही जीव जब अनादि मोहनीय कर्मके उदयका अनुसरण करनेवाली परिणति को छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोगवाला होता है, तब वह स्वसमय या स्वचरित्र होता है। सारांश यह है कि स्वद्रव्यमें शुद्धोपयोगरूप परिणतिका नाम स्वचरित्र है और जो मोहनीय कर्मके उदयका अनुसरण करनेवाली परिणतिके वश रंजित उपयोग वाला होकर परद्रव्यमें शुभ अथवा अशुभ भाव करता है, वह स्वचारित्रसे भ्रष्ट हुआ परचारित्रका आचरण करनेवाला कहा जाता है। स्वसमयके ग्रहण और परसमयके त्यागसे ही कर्मोंका क्षय होता है। अतः परसमयको त्यागकर स्वसमयमें लीन होना ही मोक्षका उपाय है । ज्यों-ज्यों जीव आत्मस्वभावमें स्थिर होता जाता है, त्यों-त्यों उसकी परसमयपरकप्रवृत्ति छूटती जाती है और ज्यों-ज्यों परसमयपरकवृत्ति छूटती जाती है,त्यों-त्यों आत्मस्वभावमें लीनता होती जाती है।
पुनः उसी बातको कहते हैं
जो शुभ और अशुभ भावसे रहित होकर स्वभावका अनुभवन कर रहा है, वह बार-बार उसीमें विहार करता हुआ स्वचरितका ही आचरण करता है ।।४०३।।
आगे सरागचारित्र और वीतरागचारित्रमें कथंचित् अविनाभाव बतलाते हैं
सराग अवस्थामें भेदके उपचारसे जो भेदरूप चारित्र होता है, वही चारित्र वीतराग अवस्थामें विपरीत ( अभेदरूप ) करणीय होता है ॥४०४॥
आगममें कहा है
परद्रव्यात्मक भावोंसे रहित स्वरूपवाला जो आत्मा दर्शनज्ञानरूप भेदको आत्मासे अभेदरूप आचरता है,वह स्वचारित्रको आचरता है ।
विशेषार्थ-वीतरागता ही मोक्षमार्ग है, किन्तु वह वीतरागता साध्य-साधक रूपसे परस्पर सापेक्ष निश्चय और व्यवहारसे ही मुक्तिका कारण होती है। जो लोग विशुद्धदर्शन ज्ञान स्वभाव शद्ध आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्गको अपेक्षा न करके केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहार मोक्षमार्गको ही मानते हैं, वे देवलोक प्राप्त करके संसारमें ही भटकते हैं। किन्तु जो शुद्धात्मा
१. सरायचरणे-४० क० ख० मु०। २. वा वियप्पादो-अ० क० ख० मु० । 'दसंणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो'-पञ्चास्ति० गा. १५९ ।
२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org