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________________ १८४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०३६६ एकस्याप्युपादानहेतोः कार्यकारणत्वे न्यायमाह उप्पज्जती कज्ज कारणमप्पा णियं वि जणयंतो। तम्हा इह ण विरुद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं ॥३६६॥ स्वसंवेदनहेतुमात्रेण स्वरूपसिद्धिर्मविष्यति इत्याशंक्याह असुद्धसंवेयणेण य अप्पा बंधेइ कम्मणोकम्म । सुद्धसंवेयणेण य अप्पा मुंचेइ कम्मणोकम्मं ॥३६७॥ अदर्शन, मिथ्यात्व, असंयम आदि विभाव है। जब तक यह जीव परमें आत्मबुद्धि रखता है,परको अपना मानता है, मैं दूसरोंका इष्ट-अनिष्ट कर सकता हूँ या दूसरे मेरा इष्ट-अनिष्ट कर सकते हैं.ऐसा भाव रखता है, तब तक उसका वैभाविक परिणमनसे छुटकारा नहीं होता। किन्तु जब वह अपने स्वभावका अवलम्बन लेता है, तो उसका वैभाविक परिणमनसे छुटकारा हो जाता है । अतः स्वभावके अवलम्बनसे आत्मा शुद्ध होता है और विभावके कारणोंको अपनानेसे अशुद्ध होता है । एक ही उपादान कारण कार्य और कारण कैसे होता है-इसमें युक्ति देते हैं कार्यको उत्पन्न करनेसे आत्मा कारण है और स्वयं ही उत्पन्न होनेसे कार्य है। इसलिए एक ही आत्माका कारण और कार्य होना विरुद्ध नहीं है ॥३६६॥ विशेषार्थ-आत्माको कारण और कार्य दोनों कहा है। और कारण तथा कार्य मिन्न-भिन्न होते हैं। जो कारण होता है वह कार्य नहीं होता और जो कार्य होता है वह कारण नहीं होता। जैसे मिट्टी कारण है और घट उसका कार्य है। इसलिए आत्माको कारण समय और कार्य समय कहने में विरोध प्रतीत होता है। उस विरोधको दूर करनेके लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि जो कार्य को उत्पन्न करता है उसे कारण कहते हैं और ह उसे कार्य कहते हैं। अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसूख, अनन्तवीर्य आदि गणोंसे यक्त सिद्धपरमात्मा कार्यसमयसार रूप हैं। और शुद्धात्माके श्रद्धान ज्ञान और आचरणसे विशिष्ट आत्मा कारणसमयसाररूप है। जो आत्मा कारणसमयसाररूप है,वही आत्मा शुद्ध-बुद्ध होकर सिद्ध परमात्मा बनती है। चूंकि सिद्धपरमात्मारूप दशा उसीमें उत्पन्न हुई इससे वह आत्मा कार्यरूप है और अपने ही सम्यक् श्रद्धान ज्ञानादिरूप कारणसे वह उत्पन्न हुई है इसलिए उसका कारण भी वह स्वयं है । अतः एक ही आत्मा कारण भी है और कार्य भी है। वस्तुतः उपादान कारण ही कार्यरूप होता है। जैसे घटका उपादान कारण मिट्टी है अतः मिट्टी ही घटरूप होतो है। इसी तरह संसारी आत्मा हो अपने स्वरूपके श्रद्धान ज्ञान और आचरणसे मुक्त होता है अतः वह स्वयं ही कार्य है और स्वयं ही अपना कारण है ॥ स्वसंवेदनरूप हेतुमात्रसे स्वरूपकी सिद्धि हो जायेगी, ऐसी आशंका करके कहते हैं अशुद्ध संवेदनसे आत्मा कर्म और नोकर्मसे बँधता है। और शुद्ध संवेदनसे कर्म और नोकर्म से छूटता है ॥३६७॥ विशेषार्थ-स्वसंवेदनका मतलब है 'अपना ज्ञान'-स्वयंको जानना । स्वसंवेदन शुद्ध भी होता है और अशुद्ध भी होता है । शुद्ध स्वरूपका संवेदन शुद्ध स्वसंवेदन है और अशुद्ध स्वरूपका संवेदन अशुद्ध संवेदन है। संवेदन तो चेतनारूप है । चेतनाके दो भेद हैं -अशुद्ध चेतना और शुद्ध चेतना। अशुद्ध चेतनाके भी दो भेद हैं-कर्मफल चेतना और कर्मचेतना । कर्म और कर्मके फलमें आत्मबुद्धिका होना कर्मचेतना और कर्मफल चेतना है और ज्ञानस्वरूप आत्मामें आत्मसंचेतनका होना ज्ञानचेतना है। संसारदशामें अज्ञानीजीव स्व और परका भेद न जाननेके कारण पौद्गलिक कर्मोका निमित्त पाकर उत्पन्न हुए काम-क्रोधादिरूप विकारोंको हो अपना मानता है। वह स्व और परमें एकत्वका आरोप करके परद्रव्यस्वरूप राग-द्वेषसे एक होकर ऐसा मानता है कि मैं रागी हूँ, द्वेषी हूँ, मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, मैं अमीर हूँ, गरीब हूँ यह सब अशुद्ध स्वसंवेदन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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