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________________ -३६९ ] नयचक्र १८५ पढमं भुत्तसरूवं मुत्तसहावेण मिस्सियं जम्हा। विदियं मुत्तामुत्तं सपरसरुवस्स पच्चक्खं ॥३६८॥ हेऊ सुद्धे सिज्झइ बाइ इयरेण णिच्छियं जीवो। तम्हा दव्वं भावो गउणाइविवक्खए णेओ॥३६९।। उक्तं चूलिकायां सकलसमयसारार्थ परिगृह्य पराश्रितोपादेयवाच्यवाचकरूपं पञ्चपदाश्रितं श्रुतं कारणसमयसारः । भावनमस्काररूपं कार्यसमयसारः। तदाधारेण चतुर्विधधर्मध्यानं कारणसमयसारः। तदनन्तरं प्रथमशुक्लध्यानं द्विचत्वारिंशदभेदरूपं पराश्रितं कार्यसमयसारः। तदाश्रितभेदज्ञानं कारणसमयसारः। तदाधारीभूतं परान्मुखाकारस्वसंवेदनभेदरूपं कार्यसमयसारः। तत्रैवाभेदस्वरूपं परमकार्यनिमित्तात् इसी तरह कामासक्त प्राणी विषयभोग करते हुए जो सुखानुभूति करता है वह भी अशुद्ध स्वसंवेदन है। किन्तु स्व और परके भेदको जाननेवाले ज्ञानीका जो स्वसंवेदन है वह शुद्ध स्वसंवेदन है, इसीसे उसे वीतरागस्वसंवेदन कहते हैं । इस वीतराग स्वसंवेदनसे ही जीव कर्मबन्धनसे छुटता है। और अशुद्ध स्वसंवेदनसे तो नवीन कर्मबन्ध होता है । इसीसे समयसार ( गाथा १३०-१३१ ) में कहा है कि जैसे सोनेसे सोनेके आभूषण बनते हैं और लोहेसे लोहेंके आभूषण बनते हैं, वैसे ही अज्ञानीके अज्ञानमय क्रोधादिभाव होते हैं जो नवीम कर्मबन्ध के हेतु होते हैं और ज्ञानीके क्षमा आदिरूप ज्ञानमय भाव होते हैं जो संवर और निर्जराके कारण होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टिके यद्यपि चारित्रमोहका उदय होनेसे क्रोधादि भाव होते हैं, किन्तु उनमें उसकी आत्मबुद्धि नहीं होती। वह उन्हें परके निमित्तसे होनेवाली उपाधि हो मानता है। इससे ऐसा बन्ध नहीं होता जिससे संसार बढ़ता हो। पहला अशुद्ध स्वसंवेदन मूर्तस्वरूप है,क्योंकि वह पौद्गलिक कर्मोंके उदयादिसे होनेवाले औदयिक आदि भावोंसे मिला हुआ होता है। और दूसरा शुद्ध स्वसंवेदन मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी है क्योंकि उसमें स्व और परस्वरूपका प्रत्यक्ष होता है ॥३६८।। विशेषार्थ-स्व और परके भेदको न जानकर परमें आत्मबुद्धिको लिये हुए जो अशुद्ध संवेदन होता है वह मूर्तिक है,क्योंकि कर्मोके उदयादिके निमित्तसे होनेवाले मूर्तिक भावोंसे मिला होता है ; जैसे राग मेरा है मैं स्थूल या कमजोर हूँ ,इत्यादि । किन्तु जो शुद्ध संवेदन होता है, उसमें परके साथ स्वका संवेदन होते हुए भी परमें आत्मबुद्धि नहीं होती। परको पर और स्वको स्व ही अनुभवन करता है । जैसे 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसा जानते हुए भी मनुष्य पर्यायको अपना नहीं मानता । अतः शुद्ध कारणके होनेपर जीव मुक्त होता है और अशुद्ध कारणके होनेपर निश्चितरूपसे बंधता है। इसलिए गौण और मुख्य विवक्षासे द्रव्य और भावको जानना चाहिए ॥३६९।। चूलिकामें कहा है समस्त समयसारके अर्थको ग्रहण करके पराश्रित होते हुए भी उपादेय जो वाच्य ( अर्थ ) वाचक ( शब्द ) रूप पंचनमस्कार मन्त्र है,वह कारण समयसार है और भाव नमस्काररूप कार्य समयसार है । उसके आधारसे जो पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीतके भेदसे चार प्रकारका धर्मध्यान होता है, वह कारण समयसार है । उसके पश्चात् ४२ भेद रूप जो प्रथम शुक्लध्यान होता है, जो पराश्रित है, वह कार्य समयसार है। और उस प्रथम शुक्लध्यानके आश्रयसे जो भेदज्ञान होता है, वह कारणसमयसार है। वह भेदज्ञान रूप कारणसमयसार जिसका आधारभूत है, वह स्वसंवेदनरूप कार्यसमयसार है जो परसे विमुख है। उस अभेद १. चूलिका ( 'उक्तं च' नास्ति )-ज० । २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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