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नयचक्र
सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसब्भावो । खय पुणु सहावझाणं तम्हा तं कारणं ज्ञेयं ॥३६२॥ तयोः स्वरूपं कारणसमयस्य ਚ कारणत्वमाह -
किरियातोदो सत्यो अनंतणाणाइसंजुओ अप्पा | तह मज्झत्यो सुद्धो कज्जसहावो हवे. समओ ॥ ३६३॥ उदयादिसु पंचण्डं कारणसमओ हु तत्थ परिणामी । जम्हा लद्धा हे सुद्धो सो जणई अप्पाणं ॥ ३६४ ॥ कारणसमयेन कार्यसमयस्य दृष्टान्तसिद्धिमाह
जह इह विहाव असुद्धयं कुणइ आदमेवादा | तह सम्भावं लद्धा सुद्धो सो कुणइ अप्पाणं ॥ ३६५॥
श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् आचरणरूप कारणसमयसार है । उसीसे शुद्धस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है । आगे ग्रन्थकार स्वयं इस बातको कहते हैं
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कर्मोंके क्षयसे शुद्ध 'जीवका स्वभाव कारण समय है । कर्मोंका क्षय उस स्वभाव के ध्यानसे होता है । अतः कारणसमय शुद्धस्वरूप ध्येय-ध्यानके योग्य है ।। ३६२||
आगे ग्रन्थकार कार्यसमय और कारणसमयका स्वरूप तथा कारणसमय क्यों कारण है, यह बतलाते हैं
निष्क्रिय, प्रशस्त, अनन्तज्ञानादि गुणोंसे युक्त वीतराग शुद्ध आत्मा कार्य समय है || ३६३|| और औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक इन पाँच भावों में जो पारिणामिकभाव है वह कारणसमय है । क्योंकि शुद्धआत्मस्वरूपका श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप कारणके मिलने पर उसीका ध्यान आत्माको शुद्ध करता है || ३६४ ॥
विशेषार्थ - जीवके पाँच भाव कहे हैं- ओदयिकभाव- जो कर्मोके उदयसे होता है, औपशमिक भाव- जो कर्मोंके उपशमसे होता है, क्षायिकभाव- जो कर्मोके क्षयसे होता है, क्षायोपशमिकभाव - जो कर्मों के क्षयोपशमसे होता है, और पारिणामिक भाव - जो द्रव्यका स्वाभाविक भाव है, जिसमें कर्मका उदयादि निमित्त नहीं है । यों तो इन पांचों भावोंको जीवका स्वतत्त्व कहा है; क्योंकि जीवके सिवाय अन्य किसी द्रव्यमें किादिभाव नहीं होते हैं । इनमेंसे कर्मनिरपेक्ष स्वाभाविकभाव पारिणामिक ही है, अतः वही ध्येय है । उसीका ध्यान करनेसे आत्मा शुद्ध होता है ।
दृष्टान्त द्वारा कारणसमयसे कार्यसमयकी सिद्धिका समर्थन करते हैं—
जैसे इस संसार में आत्मा विभावके कारणोंको पाकर अपनेको अशुद्ध करता है, वैसे ही स्वभावको पाकर अपनेको शुद्ध करता है || ३६५॥
विशेषार्थ - कमौका निमित्त पाकर यह आत्मा स्वयं ही विभावरूप परिणमन करता है | स्वभावसे जो विपरीत है वह विभाव है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व ये स्वभाव हैं और इनके विपरीत अज्ञान,
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१. च व्युत्पत्तिमाह अ० क० ख० मु० । च कारणत्वमाह व्युत्पत्तिमाह ज० । २. कुणइ मु० । 'औपशमिकादिपञ्चभावानां मध्ये केन भावेन मोक्षो भवतीति चिन्त्यते यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तेर्व्यक्तिर्भवति तदायं जीवः सहजशुद्धपारिणामिकभावलक्षणनिजपरमात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणपर्यायेण परिणमति । - समयसार गा० ३२०, टीका जयसेन ।
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