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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा०३६१समयसारस्य कार्यकारणत्वं कारणसमयेन कार्यसिद्धयर्थ युक्तिमाह
कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ झायव्वं ।
कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स ॥३६१॥ और असत्-गोरससे भिन्न पदार्थान्तरका उत्पाद नहीं होता। इस तरह सत्का विनाश और असत्का उत्पाद नहीं होते हुए भी पूर्व अवस्थाका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद द्रव्यमें प्रतिसमय होता है। यह द्रव्यका स्वभाव है । सत्का नाश नहीं होता और असत्का उत्पाद नहीं होता।इसका एक और उदाहरण है-जीवको मनुष्यपर्याय नष्ट होती है तथा देव या अन्य पर्याय उत्पन्न होती है, किन्तु जीवपना न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । अर्थात् मनुष्य पर्यायका विनाश होनेपर भी जीवपनेका विनाश नहीं होता। देवपर्यायका उत्पाद होनेपर भी जीवपनेका उत्पाद नहीं होता। इस तरह सतके विनाश और असतका उत्पाद न होनेपर भी परिणमन होता रहता है। अतः पर्यायोंके साथ एक वस्तुपना होनेसे जन्म-मरण होते हुए भी जो सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट रहता है वह जीवद्रव्य ही परमतत्त्व है।
समयसारको कार्य कारणपना तथा कारण समयके द्वारा कार्यकी सिद्धिके लिए युक्ति देते हैं
समय कारण रूप और कार्यरूप है-ऐसा जानकर उसका ध्यान करना चाहिए। कार्य शुद्धस्वरूप है और उसका जो साधन है वह कारणभूत है ॥३६१॥
विशेषार्थ -समयका अर्थ आत्मा है। संसारदशाके पश्चात् मुक्तदशा प्राप्त होती है। जैसे मिट्टीकी पिण्डपर्याय नष्ट होने पर घटपर्याय उत्पन्न होती है अतः घटपर्याय कार्य है और पिण्डपर्याय विशिष्ट मिट्टी उसका कारण है। इसी तरह संसारी जीवकी संसार दशा छूटनेपर मुक्तदशा प्राप्त होती है। किन्तु संसार दशा तो जीवको अशुद्धदशा है और मुक्तदशा शुद्धदशा है। अशुद्धदशाको शुद्धदशाका उपादान कारण कैसे कहा जा सकता है ! वैसे तो जो आत्मा संसारदशामें है वही मुक्तदशाको प्राप्त होती है, इसलिए उसकी पूर्व अवस्था कारण है और उत्तर अवस्था कार्य है।अतः वह स्वयं कारण भी है और कार्य भी है। इसीसे ऊपर समयको कारणरूप भी कहा है और कार्यरूप भी कहा है । तथा उसका ध्यान करनेके लिए कहा है और यह भी कहा है कि कार्य शुद्धस्वरूप है। तब प्रश्न होता है कि कार्य शुद्धस्वरूपकी सिद्धिके लिए क्या अशुद्ध आत्माका ध्यान करना चाहिए और अशुद्ध आत्माका ध्यान करनेसे शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति हो सकती है ? इसके समाधानके लिए हमें शास्त्रोंके इस कथनका स्मरण करना चाहिए कि जैसे सिद्ध परमात्मा है वैसे ही संसारी आत्मा हैं। शुद्ध द्रव्यदृष्टिसे संसारी जीवोंमें और मुक्तजीवोंमें कोई अन्तर नहीं है । संसारीजीव भी सिद्धोंके समान ही सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे युक्त और जन्म-मरणसे रहित हैं। अतः निश्चय दृष्टिसे कार्य परमात्मा और कारण परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है। (देखो नियमसार गाथा ४७-४८ ) द्रव्यसंग्रह गाथा १३ में शुद्धनिश्चयनयसे सब जीवोंको शुद्ध कहा है। उसी शुद्धस्वरूप कारण परमात्माका ध्यान करनेसे कार्य शुद्धस्वरूपकी सिद्धि होती है। आशय यह है कि जीवके पारिणामिक भावोंमें एक जीवत्वभाव भी है। शद्ध चैतन्य. स्वरूप जो जीवत्व है,वह अविनाशी होने के कारण शुद्ध द्रव्यके आश्रित होनेसे शुद्धद्रव्याथिकनयकी अपेक्षा शुद्धपारिणामिकभाव कहा जाता है । कर्मजनित दस प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीनों अशुद्धपारिणामिक भाव हैं। यद्यपि ये तीनों अशुद्धपारिणामिक व्यवहारनयसे संसारी जीवमें है,तथापि शुद्ध निश्चयनयसे नहीं हैं और मुक्त जीवमें तो सर्वथा ही नहीं हैं । इन शुद्ध और अशुद्ध पारिणामिक भावोंमेंसे ध्यानकालमें शुद्धपारिणामिक ध्येयरूप होता है ,क्योंकि वह द्रव्यरूप होनेसे अविनाशी है। उसी शुद्धात्मस्वरूपका सम्यक्
१. कार्यकारित्वं ज०। २. कारणसमयस्य च का-.कख० ज० मु०। ३. ये केचिद् अत्यसान्नभव्य जीवाः ते."सिद्धक्षेत्र परिप्राप्य नियाबाधसकलविमलकेवलज्ञान"शक्तियुक्ताः सिद्धात्मानः कार्यसमयसाररूपाः कार्यशृद्धाः ।'—नियम० टी०, गा० ४७ ।
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