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________________ नयचक्र सामान्यविशेषयोः परस्पराधारत्वेन परस्परावस्तुत्वं दर्शयतिअत्थित्ताइसहावा सोमणविसेससंठिया जत्थ । अवरुष्परमविरुद्धा तं नियतच्चं हवे परमं ॥ ३५८॥ -३६० ] होऊण जत्थ पट्टा होसंति पुणो वि जत्य पज्जाया । तावति हुतं णितच्चं हवे परमं ॥ ३५९ ॥ संतो वि ण णट्टो उप्पण्णो णेव संभव जंतो । संतो तियालविसये तं नियतच्चं हवे परमं ॥ ३६० ॥ है । उत्कृष्ट ध्यान में काय और वचनको चेष्टारूप व्यापारका तो कहना ही क्या, शुभ-अशुभ विकल्परूप मनोव्यापार भी नहीं होता । सहज शुद्ध, ज्ञानदर्शनस्वभाव परमात्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक परम समाधि में तल्लीनता ही उत्कृष्ट ध्यान है। उस ध्यानमें स्थित महात्माओं को जो वीतराग परमानन्द होता है वही निश्चयमोक्षमार्ग है । उसके अनेक नाम हैं - शुद्धात्मस्वरूप, परमात्मस्वरूप, सिद्धस्वरूप, परमतत्त्वज्ञान, स्वसंवेदनज्ञान, शुद्धपारिणामिकभाव, शुद्ध चारित्र, परमतत्त्व, शुद्धोपयोग परमार्थ, शुद्धात्मानुभूति, समयसार, समता, वीतरागसामायिक, शुक्लध्यान, परमसाम्य, परमवीतरागता आदि । १८१ वीतरागचारित्राधिकार समाप्त । सामान्य और विशेषमें परस्पर आधार रूपसे परस्पर अवस्तुपना बतलाते हैं जिसमें अस्तित्वादिस्वभावरूप सामान्य और विशेष परस्परमें अविरुद्ध रूपसे स्थित हैं वही परम निजतत्त्व है ||३५|| जिसमें पर्याय उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है, और नष्ट होकर पुनः उत्पन्न होती है तथा वर्तमान भी रहती है वह परम निजतत्त्व है || ३५९ ॥ जो असत् नहीं होते हुए भी न नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है तथा तीनों कालोंमें सत् रहता है वह परम निजतत्त्व है ॥३६०॥ विशेषार्थ - अस्तित्वका अर्थ है सत्ता । सत्ताके दो रूप हैं- महासत्ता और अवान्तरसत्ता । समस्त पदार्थों में रहनेवाली और सादृश्य अस्तित्वको सूचित करनेवाली महासत्ता या सामान्यसत्ता है । और एक निश्चित वस्तुमें रहनेवाली तथा स्वरूप अस्तित्वको सूचित करनेवाली अवान्तरसत्ता या विशेषसत्ता है । महासत्ता अवान्तरसत्तारूपसे असत्ता है और अवान्तरसत्ता महासत्तारूपसे असत्ता है । इस तरह सत्ता सामान्यविशेषात्मक है । और सत्ता द्रव्यसे भिन्न नहीं है, अतः द्रव्य भी सामान्य विशेषात्मक है । उत्पाद, व्यय और धौव्यकी एकताका नाम सत्ता है और सत्ता ही द्रव्यका लक्षण है । द्रव्यमें प्रति समय पूर्व पर्यायका नाश, उत्तर पर्यायका उत्पाद और द्रव्यरूपसे ध्रुवपना होता है । जैसे मिट्टी में पिण्डपर्यायका विनाश, घटपर्याय का उत्पाद और मिट्टीपना ध्रुव रहता है। यह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य द्रव्यका स्वभाव है। इस तरह द्रव्य द्रव्यरूपसे न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है, किन्तु पर्यायका उत्पाद और विनाश होता है और पर्यायके बिना द्रव्य सम्भव नहीं है | अतः पर्यायकी अपेक्षा द्रव्य भी उत्पाद विनाशशील है । एक सर्वमान्य नियम है- सत्का विनाश नहीं होता और असत्की उत्पत्ति नहीं होती; जैसे घी की उत्पत्ति होनेपर सत् गोरसका विनाश नहीं होता Jain Education International १. सुसंठिया जत्थ सामण्णविसेसा अ० क० ख० ज० मु० । २. संभवे अ० क० ख० मु० । उप्पत्ती व विणासो दध्वस्त य णत्थि अस्थि सन्भावो । विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ॥ ११॥ भावस्स णत्थि - णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो । गुणपज्जएसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ॥ १५ ॥ मणुसत्तणेण णट्टोदेही देवो हवेदि इदशे वा । उभयत्थ जीवभावो ण णस्स दि ण जायदे अण्णो ॥ १७॥ सो चेव जादि मरणं जादि ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो । उप्पण्णो य विणट्टो देवो मणुसोत्ति पज्जाम ॥ १८॥ - पञ्चास्तिकाय | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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