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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा०३५३ -
दुक्खं जिंदा चिता मोहोविय णत्थि कोइ अपमत्ते उप्पज्जइ परमसुहं परमप्पयेणाणअणुहवणे ॥३५३॥ हेयोपादेयविदो संजमतववीयरायसंजुत्तो।
जिददुक्खाइं तहं चिय सामग्गी सुद्धचरणस्स ॥३५४॥ ध्यातुर्येयसंबन्धं चारित्रनामान्तरं ध्येयस्यापि नाममाला प्राह
सामण्णे णियबोहे बियलियपरभावपरमसम्भावे । तत्थाराहणजुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्ती ॥३५५॥ सामण्णं परिणामो जीवसहावं च परमसम्भावं । धेयं गुज्झं परमं तहेव तच्चं समयसारं ॥३५६॥ समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं । तह चारित्तं धम्मो सहावआराहणा भणिया ॥३५७॥
इति वीतरागचारित्राधिकारः ।
अथोत जो
सरागी भी होते हैं और वीतरागी भी होते हैं । प्रमाददशा आत्मानुभूतिमें बाधक है। उक्त प्रमादोंको हटाये बिना स्थिर आत्मानुभूति नहीं होती, इसीसे अप्रमत्त दशासे ही ध्यानकी स्थिरता स्वीकार की गयी है । वैसे क्षणिक आत्मानुभूति तो अविरत सम्यग्दृष्टिको भी होती है। किन्तु ऊपर जो संवित्तिगत ध्यान कहा है वह अप्रमत्त साधुके ही होता है,वही उसका यथार्थ स्वामी है ।
क्योंकि
अप्रमत्त साधुके दुःख, निन्दा, चिन्ता, मोह और कोई भी प्रमाद नहीं होता। इसलिए उत्कृष्ट आत्मिक ज्ञानका अनुभवन करते हुए उसे परम सुख होता है ॥३५३॥
आगे संवित्तिकी सामग्री बतलाते हैं
शुद्ध आचरणकी सामग्री है-हेय और उपादेयका सम्यक् परिज्ञान, संयम, तप और वीतरागतासे संयक्त होना तथा परीषह आदिका जोतन
ज्ञानी हेय-उपादेयको ठीक रीतिसे जानता है, संयम और तपके साथ वीतरागी होता है तथा परीषहोंको जीतता है उनसे घबराता नहीं है,वही शुद्धचारित्रका पालन करने में समर्थ होता है ॥३५४॥
आगे ध्याता और ध्येयके सम्बन्धको जिसका दूसरा नाम चारित्र है, तथा ध्येयके नामोंको कहते हैं
समस्त परभावोंसे रहित परम सद्भावरूप आत्मज्ञानमें जो तात्त्विक आराधनासे युक्त होता है उसे शुद्धचारित्रवाला ध्याता कहा है ॥३५५।। सामान्य, परिणामी, जीवस्वभाव, परमसद्भाव, परमगुह्य, तत्त्व, समयसार ये सब ध्येय ( जिसका ध्यान किया जाता है) के नामान्तर हैं । समता, माध्यस्थ्य, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव आराधना भी उसे कहते हैं ॥३५६-५७॥
विशेषार्थ–सविकल्प दशामें विषयकषायसे बचनेके लिए और चित्तको स्थिर करनेके लिए पंचपरमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होता है। बादको जब अभ्यास करनेसे चित्त स्थिर हो जाता है.तो शुद्ध,बुद्ध,एक स्वभाव निज शुद्ध आत्माका स्वरूप ही ध्येय होता है। ध्याताको अन्तरंग और बाह्य परिग्रहसे रहित होना चाहिए, तभी वास्तवमें चित्त स्थिर हो सकता है। ध्येय वस्तुमें निश्चल होनेका ही न १. परमपया-जः । २. हेऊपायविदण्हु आ० । हेयोपायविदण्हु अ० क० ख० ज० । ३. सम्बन्ध स्वरूपचाअ.क. ख० ज०।
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