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________________ १७२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० ३४० शुभाशुमयोग्यवहाररत्नत्रयस्य च फलमाह सुहमसुहं चिय कम्मं जीवे देहब्भवं जणदि दुक्खं । दुहपडियारो पढमो णहु पुण तं पढिज्जेइ इयरत्थे॥३४०॥ मोत्तण मिच्छतियं सम्मगरयणत्तयेण संजुत्तो। वढें तो सुहचे? परंपरा तस्स णिव्वाणं ॥३४१॥ आगे शुभ, अशुभ और व्यवहार रत्नत्रयका फल कहते हैं शुभ और अशुभ कर्म जीवको शारीरिक दुःख देते हैं। किन्तु प्रथम शुभोपयोगसे उस दुःख का प्रतिकार तो होता है, किन्तु सुखकी प्राप्ति नहीं होती ।।३४०॥ विशेषार्थ-अशुभोपयोगकी तरह शुभोपयोग भी अशुद्धोपयोगका ही भेद है, किन्तु अशुभोपयोगके साथ धर्मका एकार्थ समवाय नहीं है। जहाँ अशुभोपयोग है वहाँ धर्मका लेश भी नहीं है । किन्तु शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थ समवाय है, जहाँ शुभोपयोग है वहां उसके साथ धर्म भी रह सकता है। किन्तु शुभोपयोगसे भी पुण्यबन्ध होता है । प्रवचनसारके प्रारम्भमें शुभोपयोगका कथन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा हैजो जीव देव गुरु शास्त्रको पूजामें दान, शील, उपवासमें अनुरक्त रहता है वह शुभोपयोगी है। शुभोपयोगी जीव अनेक प्रकारके इन्द्रियजन्य सुखोंको प्राप्त करता है। किन्तु शुभोपयोगसे देवपर्याय प्राप्त होने पर भी स्वाभाविक सुख प्राप्त नहीं होता, क्योंकि देवपर्यायमें भी स्वाभाविक सुख नहीं है, बल्कि दुःख ही है क्योंकि पुण्य कर्मके विपाकसे देवोंको जो सांसारिक सुखसामग्री प्राप्त होती है उसमें मग्न होकर वे तृष्णासे पीड़ित होकर वस्तुतः दुखी ही रहते हैं । पुण्य कर्मके उदयमें विषयोंको प्राप्ति होने पर तृष्णाका बढ़ना ही स्वाभाविक होता है । इसीसे आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारमें लिखा है कि पुण्य कर्मको सुशील और पाप कर्मको कुशील कहा जाता है, किन्तु जो पुण्य कर्म जीवको संसारमें भटकाता है वह सुशील कैसे हो सकता है फिर भी जहाँ पाप कर्मके उदयसे केवल दुःख मिलता है, वहाँ पुण्य कर्मके उदयसे दु:खके स्थानमें सांसारिक जीवोंके विषयवासनाके अनुरूप सुख मिलता है । किन्तु वस्तुतः वह सुख सुख नहीं है, क्योंकि जो पराश्रित होता है, जिसमें दुःखका भी मेल रहता है और जो आकर पुनः चला जाता है, वह सुख सुख नहीं है। केवल दुःखका प्रतीकार मात्र है। अतः शुभोपयोगसे अशुभोपयोगजन्य दुःखका प्रतिकार तो होता है, किन्तु स्थायी अविनाशी सुख प्राप्त नहीं होता। उसके लिए तो एकमात्र शुद्धोपयोग ही उपादेय है । जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको त्यागकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे युक्त होता हुआ शुभ कर्म करता है, उसका परम्परासे मोक्ष होता है ।।३४१॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा ग्रन्थकारने व्यवहाररत्नत्रयका फल परम्परासे मोक्ष बतलाया है। व्यवहाररत्नत्रयका स्वरूप पहले कह आये हैं । व्यवहाररत्नत्रय किस प्रकार परम्परासे मोक्षका कारण है ? इसे द्रव्यसंग्रहको टोकामें ब्रह्मदेवजी ने सुस्पष्ट किया है। वे लिखते हैं जैसे कोई पुरुष देशान्तरमें स्थित किसी सुन्दर स्त्रीके पाससे आये हुए पुरुषोंका सम्मान आदि इस लिए करता है कि उसे उस स्त्रीकी प्राप्ति हो सके, उसी तरह सम्यग्दष्टि भी यद्यपि उपादेय रूपसे अपनी शद्धात्माकी ही भावना भाता है किन्तु च मोहनीयके उदयसे उसमें असमर्थ होने पर परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए तथा विषय कषायोंसे बचनेके लिए निर्दोष परमात्म स्वरूप अर्हन्त और सिद्धोंकी तथा उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय और साधुओंकी दान, पूजा आदि तथा गुणस्तवन आदि द्वारा परमभक्ति करता है। उसके परिणामोंमें भोगोंकी चाह नहीं होती और न निदानकी भावना होती है। फिर भी उस प्रकारके शुभोपयोग रूप परिणामोंसे न चाहते हुए भी विशिष्ट पुण्यका आस्रव होता है जैसे किसानोंको न चाहने पर भी अन्नके साथ ही भूसा भी मिलता है। उस १. पढिज्ज इयरत्थो अ० क० ख० ज० मु०। इयरत्थे-सुखार्थे । ‘णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुःखं । किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवस्स ॥७२॥-प्रवचनसार । २. सम्मत्तगुणरय-अ० क.। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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