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________________ -३३१ ] नयचक्र असुहेण रायरहिओ वयाइरायेण जो हु संजुत्तो । ans for सराओ सुक्को दोण्हं पि खलु इयरो ॥ ३३१ ॥ सुवर्ण में तथा जीवन और मरणमें जिसका समभाव है, यह मेरा है और यह पराया है, यह सुखदायक है और यह दुःखदायक है, यह मेरा उपकारी हैं और यह अपकारी, यह मेरा रक्षक है और यह भक्षक है ऐसी भेदबुद्धि जिसमें नहीं है वह श्रमण विशुद्ध सम्यग्दर्शनसे युक्त होता है और साधुके २८ मूलगुणोंका पालक होता तथा आत्मध्यान में लीन रहता है । ऐसा श्रमण ही चारित्रका स्वामी होता है । वह दुःखसे छुटकारा पाने के लिए बन्धु बान्धवोंसे आज्ञा लेकर श्रमणाचार्य की सेवामें उपस्थित होकर समस्त परिग्रहको त्यागकर साधुत्वका मार्ग स्वीकार करता है । और इस तरह वह चारित्रका स्वामी श्रमण बन जाता है । ध्यानाध्ययन ही उसके मुख्य कार्य होते हैं । १६५ आगे सराग और वीतरागका कथन करते हैं अशुभ प्रवृत्तियों तो राग नहीं करता, किन्तु जिसे व्रतादिरूप शुभ प्रवृत्तियों में राग रहता है, उसे यहाँ सरोग चारित्रका धारक श्रमण कहा है और जिसे अशुभ और शुभ दोनों ही प्रकारका राग नहीं है, वह श्रमण वीतराग है ||३३१|| Jain Education International विशेषार्थ - आगम में श्रमण दो प्रकारके बताये हैं- एक शुद्धोपयोगी और एक शुभोपयोगी । शुद्धोपयोगी वीतराग होते हैं और शुभोपयोगी सराग होते हैं । शुद्धोपयोगीको निरास्रव कहा है और शुभोपयोगी को आस्रवसे सहित सास्रव कहा है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि उपयोगके तीन प्रकार हैं-अशुभ, शुभ और शुद्ध । विषय और कषायमें अनुरक्त होकर जो विषयकषाय वर्धक शास्त्रोंको सुनता है, विषयी पुरुषों की संगति करता है उसका उपयोग अशुभ होता है । किन्तु जो सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरुका श्रद्धानी बनकर जीवों पर दयाभाव रखता है, उसका उपयोग शुभ होता है । शुभोपयोगसे पुण्यबन्ध और अशुभोपयोगसे पापबन्ध होता है । किन्तु शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके रागसे रहित शुद्धोपयोगसे बन्ध नहीं होता है । अतः वस्तुतः शुद्धोपयोग ही उपादेय है । गुणस्थानोंकी परिपाटीके अनुसार प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय गुणस्थान में यद्यपि अशुभोपयोग रहता है, किन्तु ऊपर-ऊपर उसकी मन्दता होती जाती है । आगे चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थानमें परम्परासे शुद्धोपयोगका साधक शुभोपयोग रहता है । इसका स्पष्टरूप यह है कि समयदृष्टि यद्यपि उपादेय रूपसे निज शुद्ध आत्माको हो भाता है, किन्तु चारित्रमोहके उदयसे उसमें असमर्थ होने पर निर्दोष परमात्मस्वरूप अर्हन्तों और सिद्धोंकी तथा उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय और साधुओंकी भक्ति में मन लगाकर विषयकषायमें प्रवृत्तिको रोकता है इस तरह उसका वह शुभोपयोग भी परम्परासे शुद्धोपयोगमें सहायक कहा जाता है । आगे सातवें गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदको लिये हुए शुद्धोपयोग रहता है । शुद्धोपयोग में शुद्ध, बुद्ध स्वभाव निज आत्मा ही ध्येय रहती है | सातवें आदि गुणस्थानों में भी शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध आत्माका अवलम्बन होनेसे, और शुद्ध आत्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग घटित होता है । यह शुद्धोपयोग न तो संसारके कारणभूत मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध पर्यायोंकी तरह अशुद्ध होता है और न केवलज्ञानरूप शुद्ध पर्यायकी तरह शुद्ध होता है । किन्तु इन दोनों अवस्थाओंसे विलक्षण तीसरी अवस्था होती है जो शुद्धात्मानुभूति रूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप तथा मोक्षका कारण होती है । १. समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि । तेसु वि सुद्ध्रुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥ २४५ ॥ --प्रवचनसार । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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