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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० ३३२ सम्मा विय मिच्छा विय तवोहणा समण तहय अणयारा। होति विराय सराया जदिरिसिमुणिणो य णायव्वा ॥३३२॥ श्रद्धानादि कुर्वतो मिथ्यासम्यग्मावं यथा तथा चाह इंदियसॉक्खणिमित्तं सद्धाणादीणि कुणइ सो मिच्छो । तं पिय मोक्खणिमित्तं कुब्वंतो भणइ सद्दिट्ठी ॥३३३॥ तपस्वी अनगार श्रमण सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादष्टि भी होते हैं तथा ऋषि, यति और मुनि सरागी भी होते हैं और वीतरागी भी होते हैं ॥३३२॥ विशेषार्थ--जिनरूपके धारी भिक्षु अनेक प्रकार के होते हैं। उनके नाम हैं-अनगार, यति, मुनि और ऋषि । सामान्य साधुओंको अनगार कहते हैं। उपशम और क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ साधुओंको यति कहते हैं । अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानीको मुनि कहते हैं। और ऋद्धिधारी साधुओंको ऋषि कहते हैं । अनगार अर्थात् सामान्य साधु सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। कौन सम्यग्दृष्टि और कौन मिथ्यादष्टि होते है, इसे ग्रन्थकारने आगे स्वयं स्पष्ट किया है। शेष ऋषि,यति और मुनि सरागी भी होते हैं और वीतरागी भी होते हैं । इनमें जो प्रमत्तादि गुणस्थानवर्ती हैं, वे सरागी है और जो वीतराग अवस्थामें स्थित हैं,वे वीतरागी हैं। श्रद्धान आदि करते हुए भी कैसे सम्यग्पना और मिथ्यापना होता है, यह बतलाते हैं जो इन्द्रिय सुखकी प्राप्तिके लिए श्रद्धान,ज्ञान और चारित्रका पालन करता है,वह मिथ्यादृष्टि है और जो मोक्षके लिए श्रद्धान आदि करता है,वह सम्यग्दृष्टि है ॥३३३॥ विशेषार्थ-जैन आचार और विचारको श्रद्धा करके उसका पालन करनेवाले गृहस्थ ही नहीं, साधु भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होते हैं । जिन्होंने संसार भोगोंको इच्छासे, देवगति और भोगभूमिकी लुभावनी भोगवार्तासे आकृष्ट होकर उसी की प्राप्तिके लिए व्रताचरण स्वीकार किया है,वह मिथ्यादृष्टि है और जिसने संसारके सुखको त्याज्य मानकर मोक्षकी प्राप्तिके लिए जिनदीक्षा धारण की है, वह सम्यग्दृष्टि है। समयसार गाथा २७३ आदिमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा है कि अभव्यजीव जिन भगवानके द्वारा कथित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तपको करते हए भी अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही रहता है। क्योंकि इन सबके करनेका जो वास्तविक लक्ष्य मोक्ष है उस पर उसकी श्रद्धा नहीं है। और इसका कारण यह है कि उसे शुद्ध ज्ञानमय आत्माकी हो प्रतीति नहीं है। जिसे शुद्ध ज्ञानमय आत्माका ही ज्ञान नहीं है, उसकी श्रद्धा ज्ञान पर ही नहीं है । और ज्ञानपर श्रद्धा न होनेसे ग्यारह अंगका पाठो होनेपर भी, शास्त्राध्ययनका जो गुण है उसका अभाव होनेसे वह ज्ञानी ही नहीं है। शास्त्राध्ययनका वास्तविक लाभ है-सबसे भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का परिज्ञान, जिसे उसकी श्रद्धा ही नहीं है उसे शास्त्राध्ययनसे भी उसका परिज्ञान नहीं हो सकता । ऐसा व्यक्ति अज्ञानी ही होता है । शायद कहा जाये कि उसे धर्मकी तो श्रद्धा है तभी तो उसने मुनिदीक्षा ली है? इसका उत्तर यह है कि उसे यह श्रद्धा है-धर्मसेवन भोग प्राप्तिका निमित्त है, कर्मक्षयका निमित है। ऐसी उसको श्रद्धा नहीं है। अतः जो धर्मको भोगका साधन मानकर उसकी प्राप्तिके लिए जप, तप करते हैं, वे मिथ्यादष्टि है । क्योंकि जिनकी रुचि संसारके भोगोंमें है, वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं। वस्तुस्वरूपका यथार्थ श्रद्धालु संस्कारवश भोगोंको न छोड़ सके यह सम्भव है, किन्तु विषयोंमें अभिरुचि रखे यह सम्भव नहीं है। अभिरुचिका मूल संस्कार नहीं, अज्ञान भाव है-इस प्रकारका अज्ञानीपना ज्ञानी सम्यग्दृष्टि में कैसे हो सकता है ? १. 'देशप्रत्यक्षवित्केवलभृदिह मुनिः स्यादृषिः प्रोद्गद्धिरारूढ श्रेणियुग्मोऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुरुक्तः । राजा ब्रह्मा च देवः परम इति ऋषिविक्रियाऽक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्धचौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदीक्रमेण ॥'-चारित्रसार । २. 'सद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । धम्म भोगणिमित्तं णदु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥२७५॥'-समयसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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