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१५४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ३१०कज्जं पडि जह पुरिसो इक्को वि अणेकरूवमापण्णो।
तह मोहो बहुभेओ णि विठ्ठो पच्चयादीहिं ॥३१०॥ शुभरागस्य भेदमाह
देवगुरुसत्यभत्तो गुणोवयारकिरियाहि संजुत्तो।
पूजादाणाइरदो उवओगो सो सुहो तस्स ॥३११॥ मावत्रयाणामुत्पत्तिहेतुं तैश्च बन्धं मोक्षं चाह
परदो इह सुहमसुहं सुद्धं ससहावसंगदो भावं ।
सुद्धे मुंचदि जीवो बज्झदि सो इयरभावेहि ॥११२॥ कर्मोंमें ही पुण्य और पापका भेद है । सो उनमेंसे शुभ रागसे पुण्यकर्मोंका बन्ध होता है और अशुभ रागसे पाप कर्मका बन्ध होता है। घातिकर्म तो पापरूप ही हैं और उनका बन्ध सदा होता रहता है ।
__ जैसे एक भी पुरुष कार्यको अपेक्षा अनेक रूप होता है, वैसे हो मोहनीय कर्म भी प्रत्यय आदिके द्वारा अनेक प्रकारका कहा है ॥ ३१०॥
विशेषार्थ-कर्मबन्धके कारण चार कहे हैं-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । यदि इसमें अज्ञान भावको भी सम्मिलित कर लें तो वे पाँच हो जाते हैं। इनमें से योगके सिवाय शेष चारों कारण मोहनीयके ही वंशज हैं। मोहनीयके ही मिथ्यात्व कर्मके उदयमें मिथ्यात्व भाव होता है। चारित्र मोहनीयके उदयमें अविरति भाव तथा कषाय भाव होता है। मिथ्यात्वके उदयमें ही अज्ञानभाव होता है । इस तरह ये सब भाव मोहनीयजन्य ही हैं । फिर भी इनके कार्यमें कुछ भेद देखा जाता है, इसलिए इनको भिन्न-भिन्न माना है । पहले गुणस्थानमें मिथ्यात्व भाव रहता है, दूसरे और तीसरे गुणस्थान तक अज्ञानभाव रहता है, चतुर्थ गुणस्थान तक अविरतिभाव रहता है, दसवें तक कषायभाव रहता है। इस तरह यह सब मोहनीयका 'ही माहात्म्य है । योगके शुभ और अशुभ होनेमें भी मोहनीय ही कारण है। अतः तरतमभावको अपेक्षा एक ही मोहनीय कर्मके अनेक भेदरूप ये प्रत्यय कहे हैं ।
शुभरागको कहते हैं
देवगुरु और शास्त्रका जो भक्त है, गुणोंसे आकृष्ट होकर उनकी विनय, भक्ति आदि करता है, पूजा, दान आदिमें लीन रहता है वह मनुष्य शुभ उपयोगवाला है ॥३१॥
विशेषार्थ-अर्हन्त, सिद्ध और साधुमें भक्ति, व्यवहार चारित्ररूप धर्मका पालन करने में मुख्य रूपसे प्रयत्नशील रहना, आचार्य आदि गुरुओंका अनुरागवश अनुगमन करना ये सब शुभराग हैं । यह शुभराग केवल भक्ति प्रधान स्थूल व्यवहारी पुरुषोंके होता है, ज्ञानी पुरुषोंके भी कदाचित् होता है। जब वे वीतराग दशामें अपनेको स्थिर रखने में असमर्थ होते हैं तो अस्थानमें रागसे बचनेके लिए प्रशस्त राग होता है। (पंचा० टी० गा० १३६ ) यह प्रशस्त राग पुण्यास्रवका हेतु है ।
आगे तीनों भावोंकी उत्पत्तिमें हेतु और उनके द्वारा बन्ध और मोक्षका कथन करते हैं
परद्रव्यमें अनुरक्तिसे शुभ और अशुभ भाव होते हैं और आत्मस्वभावमें लीनतासे शुद्ध भाव होता है। शुद्ध भावके होने पर जीव मुक्त होता है और शुभ तथा अशुभ भावोंसे बंधता है ॥३१२॥
१. किरियाणियमसंजुत्तो क० ख० । 'अरहंतसिद्धसाहुसुभत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अणुगमणं पि गुरूणां पसत्थरागोत्ति वुच्चंति ॥१३६॥-पञ्चास्तिकाय । २. 'जो परदव्वाम्मि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं । सो सगचरित्तभद्रो परचरियचरो हवदि जीवो ॥१५६॥'-पञ्चास्तिकाय ।
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