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-३०९ ] नयचक्र
१५३ कोहो य माण माया लोह कसाया हु होति जीवाणं ।
ऍक्केंका चउभेया किरिया हु सुहासुहं जोगं ॥३०८॥ शुमाशुमभेदं मोहकार्यमक्त्वा तस्यैव दृष्टान्तमाह
मोहो व दोसभावो असुहो वा राग पावमिदि भणियं ।
सुहरागो खलु पुण्णं सुहदुक्खादी फलं ताणं ॥३०९॥ रुकते हैं और न किसीको रोकते हैं, अतः उनकी हिंसाका तो प्रश्न ही नहीं है। रहे स्थूल, सो जिनकी रक्षा करना संभव है उनकी रक्षा की जाती है। अतः संयमी पुरुषको हिंसाका पाप कैसे लग सकता है। जैनधर्ममें मुख्य व्रत अहिंसा ही है, शेष चार तो उसीके पोषण और रक्षणके लिए है। जिससे प्राणियोंको पीड़ा पहुँचती हो, ऐसा वचन सच्चा हो या झूठा उसका कहना असत्य ही है; जैसे काने मनुष्यको काना कहना यद्यपि झूठ नहीं है, फिर भी इससे उसको कष्ट होता है। अतः ऐसे पीड़ादायक सत्य वचन भी असत्य ही है। बिना दी हुई वस्तुको लेना चोरी हैं। भले ही वह वस्तु सड़कपर पड़ी हुई हो। यदि हम उसे उठा लेते हैं तो हम
हैं। हाँ, जो वस्तुएँ सर्वसाधारणके लिए हैं उनको लेना चोरी नहीं है: जैसे नदीका पानी या मिट्टी वगैरह । रागभावसे प्रेरित होकर स्त्री या पुरुष रतिसुखके लिए जो चेष्टा करते हैं उसे मैथुन कहते हैं। गाय, भैंस, जमीन, जायदाद आदि बाह्य वस्तुओंमें और आन्तरिक काम-क्रोधादि विकारोंमें जो ममत्व भाव है कि ये मेरे है. इसीका नाम परिग्रह है। बाह्य वस्तुओंको तो इसलिए परिग्रह कहा है कि उनसे ममत्वभाव होता है। वास्तवमें तो आभ्यन्तर ममत्वभाव ही परिग्रह है। जिसके पास एक पैसा भी नहीं है, किन्तु तृष्णा अपार है वह अपरिग्रही नहीं है.परिग्रही है। ये पांचों पाप कर्मबन्धके कारण हैं-इनको अविरति कहते हैं ।
आगे कषाय और योगके भेदोंको कहते हैं
जीवोंके जो क्रोध, मान, माया और लोभ होते हैं उन्हें कषाय कहते हैं। इनमेंसे प्रत्येकके चार-चार भेद होते हैं-उनके नाम हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । शुभ और अशुभ क्रियाको योग कहते हैं ॥ ३०८ ॥
विशेषार्थ-वास्तवमें तो आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन-चलन होता है उसका नाम योग है । वह योग या तो शरीरके निमित्तसे होता है या वचनके निमित्तसे होता है या मनके निमित्तसे होता है।इसलिए निमित्त के भेदसे योगके तीन भेद हो जाते हैं-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । यह योग ही आस्रव है क्योंकि योगका निमित्त पाकर ही आत्मामें कर्मोंका आस्रव ( आगमन ) होता है। ये तीनों योग शुभ भी होते हैं और अशुभ भी होते हैं। किसीके प्राणोंका घात करना, चोरी करना, मैथुन सेवन करना अशुभ काययोग है। झूठ बोलना, कठोर असभ्य वचन बोलना अशुभ वचनयोग है। किसीको मारने का विचार करना, किसीसे ईर्ष्या रखना अशभ मनोयोग है। इनसे पाप कर्मका आस्रव होता है । तथा प्राणियोंकी रक्षा करना, हितमित वचन बोलना, दूसरोंका भला सोचना शुभयोग है। इनसे पुण्य कर्मका आत्रव होता है।
आगे शुभ और अशुभ भेदको मोहका कार्य बतलाकर दृष्टान्त द्वारा उसका कथन करते हैं
मोह, द्वेषभाव और अशुभ रागको पाप कहा है और शुभरागको पुण्य कहा है। उनका फल सुख-दुःख आदि है ॥ ३०९॥
विशेषार्थ--मोह, राग, द्वेष ये सब मोहनीय कर्मके ही भेद हैं। मोहसे दर्शन मोहनीय कर्मका और राग-द्वेषसे चारित्र मोहनीयका ग्रहण किया गया है। मोह और द्वेष भाव तो अशुभ ही होते हैं, किन्तु राग शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है । मोह, द्वेष और अशुभ रागसे पापकर्मका बन्ध होता है, इसलिए उन्हें पाप कहा है। किन्तु शुभ रागसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है इसलिए उसे पुण्य कहा है। यहाँ यह बात ध्यानमें रखनेकी है कि यह कथन घातिकर्मोकी अपेक्षासे नहीं है किन्तु अघातिकर्मोंकी अपेक्षासे है। अघाति
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