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________________ -३१३ ] नयचक्र १५५ कर्मणः फलमुद्दिश्य तस्यैव कारणस्य विनाशार्थमाह जं किंपि सयलदुक्खं जीवाणं तं खु होइ कम्मादो। तं पिय कारणवंतो तसा तं कारणं हणह ॥३१३॥ विशेषार्थ-प्रवचनसारके प्रारम्भमें आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-जब यह जीव शुभ या अशुभ राग भाव करता है तो उस समय उसे शुभ या अशुभ कहते हैं, क्योंकि जो द्रव्य जिस समयमें जिस स्वभाव रूपसे परिणमन करता है वह द्रव्य उस समय उस भाव रूप ही हो जाता है। जैसे लोहेका गोला आगमें डाले जाने पर उष्णपनेसे तन्मय हो जाता है। इसी तरह जब जीव, दान, पूजा, व्रतादि रूप शुभ परिणाम करता है,तब उन भावोंके साथ तन्मय होनेसे शुभ कहा जाता है और जब हिंसा आदि रूप अशुभ भाव करता है तब अशुभ कहा जाता है। इस तरह शुभ और अशुभभाव पर द्रव्यमें अनुरक्तिको लिये हुए होते हैं । देव शास्त्र, गुरु भी अपने स्त्री, पुत्र , धन, सम्पत्तिकी तरह ही 'पर' हैं, स्व तो केवल अपना आत्मा ही है । आत्मासे भिन्न जो कुछ है वह सब पर है। उस परके अनुरागको लेकर ही शुभ तथा अशुभ भाव होते हैं । यदि स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति आदिमें अनुराग भाव है तो उसे अशुभ भाव कहते हैं । क्योंकि यह अनुराग भाव तीव्र कषायरूप होनेसे संसार-समुद्रमें ही डुबानेवाला है। किन्तु इनके स्थानमें यदि कोई संसार-समुद्रसे निकालने में निमित्तभूत सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरुमें अनुराग करता है तो वह अनुराग मन्द कषायरूप होनेसे शुभ कहा जाता है। किन्तु मोहनीय कर्मका उदय दोनों ही भावों में वर्तमान है। पर द्रव्यमें अनुराग उसके बिना सम्भव नहीं है। इसीसे पंचास्तिकाय गाथा १५६ में अशुभोपयोगीकी तरह शुभोपयोगीको भी परचरित्रचर कहा है । क्योंकि पर द्रव्यमें जिसकी वृत्ति रागयुक्त है वह परचरितचर है । यद्यपि स्त्री आदिसे देव आदि उत्तम हैं,मगर हैं तो पर ही । पर द्रव्यसे राग हटे बिना स्व द्रव्यमें लीनता सम्भव नहीं है । स्व द्रव्यमें लीनता होनेसे ही मोहनीयका क्षय होता है, इसीसे उसे शुद्धोपयोग कहते हैं। उपयोगकी अशुद्धतामें कारण रागभाव है । तीव्र रागमें अशुभभाव और मन्दरागमें शुभभाव होता है। अतः यद्यपि अशुभसे शुभ उत्तम है, किन्तु शुद्धोपयोगको दृष्टिमें तो जैसे अशुभ हेय है वैसे ही शुभ भी हेय है; क्योंकि दोनों ही बन्धके कारण हैं । मोक्षका कारण तो केवल शुद्धोपयोग है। प्रवचनसारके प्रारम्भमें आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी टीकामें लिखा हैसराग चारित्रसे देवगति और मनुष्यगतिके वैभव रूप पुण्य बन्ध होता है और वीतराग चारित्रसे मोक्ष होता है। अतः यद्यपि क्रम परिपाटीके अनुसार सराग चारित्र पूर्वक ही वीतराग चारित्र होता है, फिर भी चूँकि सराग चारित्रमें कषायका कण मौजूद है जो पुण्य बन्धकी प्राप्तिमें हेतु है, इसलिए उसे छोड़कर कषाय मलसे रहित वीतराग चारित्र ही उपादेय है क्योंकि वही निर्वाणकी प्राप्ति में हेतुभूत है। चूंकि मुमुक्षुके लिए मोक्ष ही इष्ट है, स्वर्ग सुख नहीं । इसलिए वह मोक्ष के हेतुभूत शुद्धोपयोगको ही उपादेय मानता है । यही बात इस ग्रन्थके कर्ताने भी कही है। पंचास्तिकायके अन्तमें आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है जो ज्ञानी अज्ञानवश ऐसा मानता है कि शुद्ध संप्रयोगसे सांसारिक दुःखसे मुक्ति मिलती है, वह जीव परसमयमें अनुरक्त है । यहाँ शुद्ध 'सम्प्रयोगका अर्थ है मोक्षके साधनभूत भगवान् अर्हन्त आदिमें भक्तिरागसे अनुरक्त चित्तवृत्ति-ऐसा जीव पुण्य बांधता है, कर्मक्षय नहीं करता। जिसके चित्तमें रागकी एक सूक्ष्म कनी भी जीवित है, वह समस्त शास्त्रका ज्ञाता होते हुए भी अपने शुद्ध स्वरूपमें रमण नहीं कर सकता। अतः स्व समयकी प्राप्तिके लिए अर्हन्त आदिके विषयमें भी क्रमसे रागको कणिका भी हटाना चाहिए। जब अर्हन्तादिकी भक्ति रूप राग भी सर्वथा त्याज्य है,तब स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धी रागको तो चर्चा ही क्या है वह तो अनन्त संसारका ही कारण है । आगे कर्मका फल बतलाकर उसके कारणके विनाशका उपदेश देते है - जीवोंको जो कुछ भी दुःख है वह सब कर्मके ही कारण है। उन कर्मोके भी कारण है और इसलिए उन कारणोंको ही हटाना चाहिए ॥३१३॥ विशेषार्थ-संसारमें दुःख ही है, क्योंकि आकुलता है । जहाँ आकुलता है वहाँ सुख कैसे हो सकता है १ जिनके पास सन्तान नहीं है वे सन्तान न होनेसे दुःखी हैं। जिनके सन्तान होने पर भी उसके लालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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