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________________ १५० द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० ३०२ - मिच्छेत्तं अण्णाणं अविरमण कसाय जोग जे भावा। ते इह पच्चय जीवे विसेसदो हुति ते बहुगा ॥३०२॥ मिच्छेत्तं पुणं दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरक्खं । तस्सोदयेण जोवो विवरीदं गेण्हए तच्चं ॥३०३॥ अत्थितं णो मण्णदि णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं । णत्थी विय तह दवे मूढो मूढो हु सव्वत्थ ॥३०४॥ उनमें चैतन्यका आभास है । इसीसे उन्हें चैतन्यका विकार भी कहते हैं । इस तरह मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगरूप अध्यवसान राग, द्वेष, मोहरूप आस्रवोंके कारण है। राग-द्वेष-मोहरूप आस्रव भाव कर्मके कारण हैं, कर्म नोकर्मके कारण हैं, नोकर्म संसारके कारण हैं। आशय यह है कि संसारी जीव आत्मा और कर्ममें एकत्वका अध्यवसाय करके आत्माको मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान और योगमय मानता है। अतः राग, द्वेष, मोहरूप आस्रव भावोंको ही भाता है। उससे कर्मका आस्रव होता है। कर्मसे नोकर्म शरीर होता है और शरीर धारण करनेसे ही संसार चलता है। उक्त कथनको स्पष्ट करने के लिए यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति आदि जो भाव हैं वे जीवसे भी भावित हैं और अजीवसे भी भावित हैं.इसलिए जीव भी हैं और अजीव भी हैं। कर्मके निमित्तसे जीव ही विभावरूप परिणमन करता है, अतः वे जो चेतनके विकार रूप हैं वे जीव ही हैं। और जो पुद्गल मिथ्यात्व आदि रूप परिणमन करते हैं वे मिथ्यात्व आदि कर्म अजीव हैं। इस तरह जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि अजीव हैं, वे अमूर्तिक चैतन्यके परिणामसे भिन्त मूर्तिक पुद्गल कर्म हैं और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, जीव हैं वे मर्तिक पदगल कर्मसे भिन्न चैतन्यपरिणामके विकार हैं। यद्यपि परमार्थ दृष्टिसे आत्माका स्वभाव शुद्ध निरंजन चैतन्य रूप ही है, किन्तु अनादि अन्य वस्तुरूप मोहसे युक्त होनेके कारण आत्मामें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरतिरूप परिणामके निमित्तसे तीन रूप होकर जिस-जिस भावको आप करता है उस-उस भावका कर्ता होता है। आगे प्रत्ययोंको बतलाते हैं जीवमें मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, कषाय और योगरूप जो भाव हैं उन्हें यहाँ प्रत्यय कहा है। उनके बहुतसे भेद हैं ।।३०२।। आगे उन प्रत्ययोंके भेदोंको कहते हैं - मिथ्यात्वके दो भेद हैं-एक मूढता रूप और दूसरा स्वभावनिरपेक्ष अर्थात् परोपदेशरूप । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीव तत्त्वको विपरीत रूपसे ग्रहण करता है अर्थात् वस्तुका जैसा स्वरूप है उससे उलटा जानता है ।।३०३॥ जो द्रव्यमें अस्तित्वको नास्तिस्वभाव सापेक्ष नहीं मानता और नास्तित्वको अस्तित्व स्वभावसापेक्ष नहीं मानता,वह मूढ़ सर्वत्र मूढ़ ही है ।३०४॥ विशेषार्थ-वस्तु न केवल अस्तिस्वरूप ही है और न केवल नास्तिस्वरूप ही है। यदि वस्तुको केवल अस्तिस्वरूप या सत्स्वरूप ही माना जायेगा तो एक वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी । जैसे घट-घट रूपसे १. 'तेसिं हेऊ भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरसीहिं। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य ॥१९॥ -समयसार । २. 'मिथ्यादर्शनं द्विविधम् । नैसर्गिक परोपदेशपूर्वकं च । तत्र परोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वाश्रिद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिम् । परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम् । क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिवैनयिकविकल्पात् । अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनम्-एकान्तमिथ्यादर्शनम्, विपरीतमिथ्यादर्शनम्, संशयमिथ्यादर्शनम्, वैनयिकमिथ्यादर्शनम, अज्ञानमिथ्यादर्शन मिति' सर्वार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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