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________________ -३०६ ] नयचक्र १५१ मूढो विय सुदहे, सहावणिरवेक्खस्वदो होइ । अलहंतो खवणादी मिच्छापयडीण खलु उदए ॥३०५॥ संसयविमोहविन्भमजुत्तं जं तं खु होइ अण्णाणं । अहव कुसत्थाज्ञयं पावपदं हवदि तं गाणं ॥३०६॥ है, वैसे ही यदि वह पट, मठ आदि रूपसे भी है तो घट, पट, मठमें कोई भेद न रहनेसे सब एक रूप हो जायेंगे। यदि कहोगे कि घट तो घट ही है;पट या मठ नहीं है तो कहना होगा घट घट रूपसे है और पट, . मठ आदि रूपसे नहीं है । अतः घट सत्स्वरूप भी है और अन्य वस्तुओंका उसमें अभाव होनेसे उनकी अपेक्षा नास्ति स्वरूप भी है-ऐसा माने बिना 'घट घट ही है, पट नहीं है' यह बात सिद्ध नहीं हो सकती। इसी तरह कोई वस्तु सर्वथा नास्ति स्वरूप भी नहीं है जो नास्ति स्वरूप है वह किसी की अपेक्षा अस्तिस्वरूप भी है। सर्वथा असत् कुछ भी नहीं है। यदि इस प्रकार अस्तित्वको नास्तित्त्वसापेक्ष और नास्तित्वको अस्तित्वसापेक्ष नहीं माना जायेगा तो समस्त व्यवहार ही गड़बड हो जायेगा । उदाहरणके लिए ऐसी स्थितिमें जैसे ऊँटमें ऊँटपना रहता है, वैसे दहीमें भी ऊँटपना रह सकेगा और ऊँटमें भी दहीपना रह सकेगा,क्योंकि दही और ऊँटमें कोई भेद आप मानते नहीं हैं। तब 'दही खाओ' ऐसा कहनेपर सुननेवाला ऊँटकी ओर भी दौडेगा या फिर जैसे वह ऊँटकी ओर नहीं दौड़ेगा,वैसे ही दहीकी ओर भी नहीं दौड़ेगा। क्योंकि ऊंटमें 'यह दही नहीं है' और दहीमें 'यह ऊंट नहीं है' इस प्रकारका धर्म तो आप मानते नहीं हैं, तब एक शब्दको सुनकर किसी वस्तु में प्रवत्ति और अन्यवस्तुसे निवत्तिका व्यवहार लप्त हो. जायेगा; क्योंकि सभी वस्तुएं सब रूप हैं । यदि कहोगे कि दहीमें स्वरूपसे दहीपना है, ऊँटरूपसे नहीं, और ऊँटमें स्वरूपसे ऊँटपना है, दहीरूपसे नहीं।अतः प्रवृत्ति-निवृत्तिके व्यवहारमें कोई गड़बड़ नहीं हो सकती । तो यह सिद्ध हुआ कि दहीपना अदहीपनेका अविनाभावी है और ऊँटपना, ऊँटपना नहीं का अविनाभावी है अर्थात् दहीमें दहीपनेके अस्तित्वके साथ अदहीपनेका नास्तित्व भी रहता है और ऊँटमें ऊँटपनेके अस्तित्वके साथ ऊँटपना नहींका नास्तित्व भी रहता है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु स्वरूपसे है और पररूपसे नहीं है । अतः अस्तित्वधर्म वस्तुमें नास्तित्व सापेक्ष है और नास्तित्वधर्म अस्तित्वधर्म सापेक्ष है । जो ऐसा नहीं मानता वह मूढ़ मिथ्यादृष्टि है । जिसे वस्तुके स्वरूपका ही ज्ञान नहीं,वह कैसे ज्ञानो हो सकता है। मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय होनेपर कर्मका क्षय आदि न कर सकनेवाला मूढ़ मिथ्यादृष्टि भी शास्त्र आदिका निमित्त मिलनेपर स्वभावनिरपेक्ष रूपसे मिथ्यादृष्टि होता है ॥३०५।। विशेषार्थ-प्राचीन शास्त्रकारोंने मिथ्यात्वके दो भेद किये हैं-नैसर्गिक मिथ्यात्व और परोपदेशनिमित्तक मिथ्यात्व । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे परोपदेशके बिना ही जो मिथ्या श्रद्धान होता है,वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है|इसे अगृहीत मिथ्यात्व भी कहते हैं। एकेन्द्रिय आदि जीवोंके यह मिथ्यात्व होता है और जो मिथ्यात्व दूसरोंके मिथ्या उपदेशको सुनकर होता है उसे परोपदेशपूर्वक या गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि नयचक्रके कर्ताने मिथ्यात्वके इन्हीं दो भेदोंको मूढ़ता और स्वभाव निरपेक्षरूपसे गिनाया है । स्वभाव निरपेक्षका अर्थ होता है-अनैसर्गिक अर्थात् स्वाभाविक नहीं। इसोसे उसे श्रुतहेतुक कहा है। और नैसर्गिकको मूढता शब्दसे कहा है,क्योंकि जो द्रव्यके स्वभावके विषयमें ही मूढ़ है, वह सर्वत्र मूढ़ ही है ऐसा लिखनेसे यही प्रतीत होता है । मिथ्यात्वका उदय तो दोनों ही भेदोंमें रहता है । आगे अज्ञानका स्वरूप कहते हैं संशय, विमोह और विभ्रमसे युक्त जो ज्ञान होता है उसे अज्ञान कहते हैं । अथवा कुशास्त्रोंके अध्ययन-चिन्तनसे जो पापदायक ज्ञान होता है वह भी अज्ञान है ॥३०६॥ _ विशेषार्थ-यह 'स्थाणु (ठूठ ) है या पुरुष है' इस प्रकारको चलित प्रतीतिको संशय कहते हैं । इसी प्रकार वीतराग सर्वज्ञके द्वारा कहा गया तत्त्वज्ञान सत्य है या दूसरोंके द्वारा कहा गया सत्य है,यह संशय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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