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मोहस्य भेदं कार्यं स्वरूपं च दर्शयति
नयचक्र
दंसणचरितमोहं दुविहं पि य विविहभेयसम्भावं । एयाणं ते भैया जे भणिया पच्चयाईहिं ॥ ३०० ॥ पच्चयवंतो 'रागा दोसामोहे य आसवा तेर्सि । आसवदो खलु कम्मं कम्मेण य देह तं पि संसारो ॥३०१ ॥
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आगे मोहनीय कर्मके भेद और उनका कार्य बतलाते हैं
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं--दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । इन दोनोंके भी अनेक भेद हैं । कर्मों के हेतु जो मिथ्यात्व आदि और राग-द्वेष आदि हैं, वे भी इन्हींके भेद हैं । मिथ्यात्व आदि रूप भाव राग, द्वेष, मोह रूप आस्रवोंके कारण हैं। आस्रवभाव कर्मका कारण है । कर्म शरीरका कारण है और शरीर संसारका कारण है ||३००-३०१ |
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विशेषार्थ - मोहनीय कर्मके दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- मिथ्यात्व सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय । जिसके उदयमें जीव सर्वज्ञके द्वारा कहे गये मार्गसे विमुख, तत्त्वार्थ श्रद्धानके प्रति उदासीन और हित-अहित के विचार से शून्य मिथ्यादृष्टि होता है मिथ्यात्व कहते हैं । जब शुभ परिणामके द्वारा उस मिथ्यात्वकी शक्ति घटा दी जाती है, जिससे वह आत्माके श्रद्धानको रोकने में असमर्थ हो जाता है तो उसे सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं । और जब उसी मिथ्यात्वकी शक्ति आधी शुद्ध हो जाती है तो उसे सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं । उसके उदयमें जीवके श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिले हुए भाव होते हैं । दर्शन मोहनीयके इन तीन भेदोंमें से बन्ध तो केवल एक मिथ्यात्व का ही होता है, किन्तु जब जीवको प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है तो उस मिथ्यात्व कर्मके तीन भाग हो जाते हैं | चारित्रमोहनीयके दो भेद हैं- अकषाय वेदनीय और कषायवेदनीय | अकषायका अर्थ है- किंचित् कषाय । इसीसे इसे नोकषाय भी कहते हैं । इसके नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद । क्रोध आदि कषायोंका बल पाकर ही हास्य आदि होते हैं, इसलिए इन्हें अकषाय या नोकषाय कहते हैं । कषाय वेदनीयके सोलह भेद हैं । मूल भेद चार हैं— क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से प्रत्येकी चार-चार अवस्थाएँ होती हैं । मिथ्यात्वके रहते हुए संसारका अन्त नहीं होता, इसलिए मिथ्यात्वको अनन्त कहते हैं । जो क्रोध, मान, माया, लोभ, अनन्त - मिथ्यात्वसे बँधे हुए होते हैं उन्हें अनन्तानुबन्धी कहते हैं । जिस क्रोध, मान, माया, लोभके उदय में थोड़ा-सा भी देशचारित्र रूप भाव प्रकट नहीं होता, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं । जिस क्रोध, मान, माया, लोभके उदयमें जीवके सकल चारित्ररूप भाव नहीं होते उन्हें प्रत्याख्यानावरण कहते हैं । और जिस क्रोध, मान, माया, लोभके उदयमें शुद्धोपयोगरूप यथाख्यात चारित्र नहीं होता, उसे संज्वलन कहते हैं । ये कषायवेदनीयके सोलह भेद हैं । इस तरह मोहनीयके कुल अट्ठाईस भेद हैं । कर्मबन्धके कारण जो मिथ्यात्व आदि कहे हैं, वे इन्हींके भेद हैं । समयसार गाथा १०९ में कहा है कि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यकर्ता नहीं होता, अतः निश्चयसे आत्मद्रव्य पुद्गल द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है, पुद्गल कर्मका कर्ता पुद्गल द्रव्य ही | उस पुद्गल द्रव्यके मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार भेद सामान्यसे बन्धके कर्ता हैं। ये चारों पुद्गल के परिणाम हैं । अतः ज्ञानावरण आदि पुद्गलकर्मो के आने में निमित्त हैं और इसलिए आस्रवरूप हैं । किन्तु ज्ञानावरण आदिके आस्रवमें निमित्त जो मिथ्यात्व आदि हैं, उनके भी निमित्त आत्मा के मोह राग-द्वेषरूप परिणाम हैं । अतः मिथ्यात्व आदि कर्मके आसवके निमित्तमें निमित्त होनेसे राग, द्वेष, मोह ही आस्रवरूप है | उनमें अपना परिणाम ही निमित्त है, इसीसे वे जड़ नहीं हैं, १. रागो दोसो मोहो क० ख० ज० । 'सन्ति तावज्जीवस्य आत्मकर्मैकत्वाध्यास मूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि अध्यवसायानि । तानि रागद्वेषमोहलक्षणस्यास्रवभावस्य हेतवः । आस्रवभावः कर्महेतुः । कर्म नोकर्महेतुः । नोकर्म संसारहेतुः । -- समयसार, गाथा १०९ टीका ।
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