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________________ १४८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० २९९ - उक्तस्य शुभाशुभस्य कारणं 'संसारस्य च कारणमाह असुह सुहं विय कम्मं दुविहं तं दव्वभावभेयगयं । तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स ॥२९९॥ है तब तक शुभ क्रियाओंको भी परमार्थसे पाप ही कहा है । व्यवहार नयसे व्यवहारी जीवोंको अशुभसे छुड़ाकर शुभमें लगानेको पुण्य भी कहा है । यहाँ इतना विशेष जानना कि अध्यात्ममें मिथ्यात्व सहित अनन्तानुबन्धीके रागको ही प्रधान रूपसे राग कहा है। क्योंकि स्व-पर ज्ञान-श्रद्धानके बिना परद्रव्यमें और परद्रव्यके निमित्तसे हुए भावोंमें आत्मबुद्धि होते हुए मिथ्यात्वका जाना सम्भव नहीं है। ऐसी स्थितिमें यदि कोई मुनि पद लेकर व्रतादि भी पाले, पर जीवोंकी रक्षा आदिरूप परद्रव्यसम्बन्धी शुभ भावोंसे अपना मोक्ष होना माने तथा पर जीवोंके घात होनेरूप अयत्नाचारसे अपने में बन्ध माने तो जानना उसके स्व-परका ज्ञान नहीं है। क्योंकि बन्ध-मोक्ष तो अपने भावोंसे था, उसे भूलकर जब तक पर द्रव्यसे ही भला-बुरा मान राग, द्वेष करता है, तब तक सम्यग्दृष्टि नहीं है । उक्त शुभ-अशुभ कर्मोका कारण तथा संसारका कारण आगे कहते हैं अशुभ और शुभकर्म द्रव्य तथा भावके भेदसे दो प्रकारके हैं। इनका कारण मोह है,उसीसे जीवको संसारमें भटकना पड़ता है ।।२९९।। विशेषार्थ-संसारमें भटकनेका कारण मोह है और मोह ही नवीन कर्मबन्धमें कारण है। मोहनीय कर्मके उदयसे जीवके मिथ्या श्रद्धान रूप तथा क्रोध, मान, माया, रूप भाव होते हैं । इन्ही भावाका निामत्त पाकर नवीन कर्मबन्ध होता है। जीवके योगरूप और कषायरूप भावोंको बन्धका कारण कहा है । जीवके मन, वचन और कायकी चेष्टाका निमित्त पाकर आत्माके प्रदेशों में हलन-चलन होता है, उसे योग कहते हैं। उसके निमित्तसे प्रति समय कर्मरूप होने योग्य अनन्त परमाणुओंका ग्रहण होता है। यदि योग अल्प होता है तो अल्प परमाणुओंका ग्रहण होता है और बहुत हो तो बहुत परमाणुओंका ग्रहण होता है। यह योग शुभ और अशभके भेदसे दो प्रकारका है। धर्मके कार्यों में मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको शुभयोग कहते हैं। और पापक कार्यों में मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको अशभ योग कहते हैं। योग शभ हो या अशुभ-घातिया कर्माको सब प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। घातिया कर्म अशभ ही हैं। अघाति कौमें ही शुभ और अशुभका भेद है । शुभ प्रकृतियोंके द्रव्यको शुभ और अशुभ प्रकृतियोंके द्रव्यको अशुभ कहते हैं । सातावेदनीय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु ये तीन आयु, एक उच्चगोत्र और नाम कर्मकी सैंतीस प्रकृतियाँ-मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, पांच शरीर नामकर्म, तीन अंगोपांग नामकर्म, समचतुरस्र संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण गन्ध रस स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उछ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेश, यश:कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर-ये सब पुण्य प्रकृतियाँ है, शेष सब अशुभ हैं। तथा शुभ और अशुभ प्रत्येक कर्म द्रव्य और बन्धके भेदसे दो प्रकारका है। कर्मपरमाणुओंको द्रव्यकर्म कहते हैं, तथा उसके निमित्तसे जीवके जो मोहादि परिणाम होते हैं उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्मके निमित्तसे भावकर्म होता है और भावकर्मके निमित्तसे द्रव्यकर्मका बन्ध होता है। इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्ममें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने से संसार चक्रमें घूमना पड़ता है । १. संसारकार्य क. । संसारकार्य ख. ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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