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________________ -२७६ ] नयचक्र १३७ नामनिक्षेपोदाहरणान् दर्शयति मोहरजअंतराए हणणगुणादो य णाम अरिहंतो। अरिहो पूयाए वा सेसा णाम हवे अण्णं ॥२७३॥ सायार इयर ठवणा कित्तिम इयरा हु बिबजा पढमा। इयरा खाईय भणिया ठवणा अरिहो य णायव्वो ॥२७४॥ दव्वं खु होइ दुविहं आगमणोआगमेण जह भणियं । अरहंतसत्थजाणो णोजुत्तो दव्व-अरिहंतो ॥२७५॥ णोआगमं पि तिविहं णाणिसरीरं भावि कम्मं च । गाणिसरीरं तिविहं चुद चत्तं चाविदं चेति ॥२७६॥ संभव है वक्ता और श्रोता दोनोंको कुमार्गमें ले जावे । इसलिए निक्षेपोंका कथन आवश्यक है। वह निक्षेप चार प्रकारका है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । ये चारों ही निक्षेप प्रत्येक द्रव्यमें होते हैं। जैसे नामजिन, स्थापनाजिन, द्रव्यजिन और भावजिन । या नामअर्हन्त, स्थापनाअर्हन्त, द्रव्यअर्हन्त और भावअर्हन्त । आगे ग्रन्थकार स्वयं इन उदाहरणोंको स्पष्ट करते हैं। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका घात करनेसे अरिहन्त नाम है और पूजाके योग्य होनेसे अर्हन्त नाम है। इन गुणोंके बिना किसीका अरिहन्त या अर्हन्त नाम रखना नामनिक्षेपका उदाहरण है ।।२७३॥ विशेषार्थ-'णमो अरिहंताणं'-अरिहन्तोंको नमस्कार हो । अरि अर्थात् शत्रुओंका 'हनन' अर्थात् नाश करनेसे 'अरिहन्त' संज्ञा होती है। मोहनीय कर्म और रज अर्थात ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म तथा अन्तरायकर्म ये चारों कर्म जोवके शत्रु हैं । इन सबमें प्रधान मोहनीय कर्म है । मोहनीयके विना शेष तीनों कर्म अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। तथा ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्म रज या धूलिको तरह बाह्य और अन्तरंग समस्त त्रिकालके विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजन पर्यायरूप वस्तुओंको विषय करनेवाले ज्ञान और दर्शनके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते हैं । इन चारों कर्मोका घात करनेसे अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है । ऐसे अरिहन्त सातिशय पूजाके योग्य होनेसे अर्हन्त भी कहे जाते हैं । अतः अरिहन्त और अर्हन्त ये दोनों संज्ञाएँ सार्थक होनेसे गौण्यपद कही जाती हैं, क्योंकि जो नाम गुणकी मुख्यतासे निष्पन्न होता है उसे गोण्यपद नाम कहते हैं। और इन गुणोंके बिना किसी व्यक्तिका नाम अरिहन्त या अर्हन्त रखना नोगौण्यपद है। उसे ही नामनिक्षेपका उदाहरण समझना चाहिए। जिस व्यक्तिमें जो गण नहीं है, उसका उस प्रकारका नाम रख देना नामनिक्षेप है। आगे स्थापना निक्षेपका उदाहरण देते हैं स्थापना के दो भेद हैं-साकार और निराकार। कृत्रिम या अकृत्रिम बिम्बोंमें अर्हन्त परमेष्ठोकी स्थापना साकार स्थापना है। और क्षायिक गुणोंमें अर्हन्तको स्थापनाको निराकार स्थापना कहते हैं ॥२७४॥ आगे द्रव्यनिक्षेपके भेद-प्रभेद उदाहरण सहित देते हैं द्रव्यनिक्षेपके दो भेद हैं--आगम द्रव्यनिक्षेप और नोआगम द्रव्यनिक्षेप। जो व्यक्ति अरिहन्त विषयक शास्त्रका ज्ञाता है,किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है अर्थात् ज्ञाता होते हुए भी जब १. णमो अरिहंताणं अरिहननादरिहन्ता ।....."रजोहननाद्वा अरिहन्ता। अतिशयपूजाहत्वाद्वार्हन्तः ।'षटखं० पु. १, पृ० ४२-४३ । 'अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजासु सुरुतमा लोए। रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चंदे । मूलाचार ५०५। २. इयरा इयरा भणिया मु० । क्षायिकोत्पन्नारहन्तस्थापना। ३. तिविहं देहं णाणिस्स भा- मु.। १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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