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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
आगमे अध्यात्ममार्गेण निक्षेपाधिकारव्याख्यानार्थमाह-
जुत्तीसु' जुत्तमग्गे जं चउभेएण होइ खलु ठेवणं । कज्जे सदि णामादिसु तं णिवखेवं हवे समए ॥२७०॥ दव्वं विविहसहावं जेण सहावेण होइ तं ज्ञेयं । तस्स णिमित्तं कीरइ एक्कं पिय दव्व चउभेयं ॥ २७१ ॥ णाम वणा दव्वं भावं तह जाण होइ णिक्खेवं ।
o सणा णामं दुविहं पिय तंपि विक्वायं ॥ २७२॥
जिनेन्द्रदेवने जो समग्र रूप क्षायोपशमिक ज्ञान कहा है वह कथंचित् स्वरूप और कथंचित् पररूपसे ग्रहण करने पर ही निर्भ्रान्त यथार्थ होता है । अर्थात् स्वरूपकी अपेक्षा वस्तु सत्स्वरूप है और पररूपकी अपेक्षा असत्स्वरूप है - ऐसा ग्रहण करनेवाला क्षायोपशमिक ज्ञान ही यथार्थ होता है । जो वस्तुको सर्वथा सत् या सर्वथा असत् ग्रहण करता है वह यथार्थ नहीं है ।
[ गा० २७०
आगे आगममें अध्यात्म मार्गके द्वारा निक्षेपाधिकारका व्याख्यान करते हैं
युक्तिके द्वारा सुयुक्त मार्ग में कार्यके वशसे नाम, स्थापना, द्रव्य और भावमें पदार्थकी स्थापनाको आगम में निक्षेप कहा है ।। २७०॥
द्रव्य अनेक स्वभाववाला होता है । उनमेंसे जिस स्वभावके द्वारा वह ध्येय या ज्ञेय-ध्यान या ज्ञानका विषय होता है, उसके लिए एक ही द्रव्यके चार भेद किये जाते हैं ।। २७१॥
निक्षेपके चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । उनमेंसे द्रव्यकी संज्ञाको नाम कहते हैं और नामके दो भेद प्रसिद्ध हैं || २७२||
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विशेषार्थ - आगममें कहा है कि जिस पदार्थका प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा, नैगम आदि नयोंके द्वारा तथा नामादि निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता वह पदार्थ कभी युक्त होते हुए भी अयुक्त सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त-सा प्रतीत होता है। अतः प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा पदार्थका निर्णय करना उचित है । उनमेंसे प्रमाण और नयका कथन तो पहले कर आये हैं । यहाँ निक्षेपका कथन करते हैं । जो किसी एक निश्चय या निर्णय में क्षेपण करता है अर्थात् अनिर्णीत पदार्थका निर्णय कराता है उसे निक्षेप कहते हैं । निक्षेपका प्रयोजन बतलाते हुए स्वामी वीरसेन महाराजने 'धवलाजीके प्रारम्भमें लिखा है कि श्रोता तीन प्रकार के होते हैं - पहला अव्युत्पन्न अर्थात् वस्तु स्वरूपसे अनजान, दूसरा सम्पूर्ण रूपसे विवक्षित पदार्थको जाननेवाला, तीसरा विवक्षित पदार्थको एकदेशसे जाननेवाला । इनमेंसे पहला श्रोता तो अनजान होनेसे कुछ भी नहीं जानता । दूसरा, विवक्षित पदके अर्थ में सन्देह करता है कि इस पदका कौन-सा अर्थ यहाँ अधिकृत है । अथवा प्रकृत अर्थको छोड़कर अन्य अर्थ ग्रहण करता है और इस तरह विपरीत समझ बैठता है । दूसरे की तरह तीसरा श्रोता भी या तो सन्देह में पड़ता है या विपरीत समझ लेता है । इनमेंसे प्रथम अव्युत्पन्न श्रोता यदि वस्तुकी किसी विवक्षित पर्यायको जानना चाहता है तो अव्युत्पन्न श्रोताके लिए प्रकृत विषयकी व्युत्पत्तिके द्वारा अप्रकृतका निराकरण करनेके लिए भाव निक्षेपका कथन करना चाहिए । यदि अव्युत्पन्न श्रोता द्रव्य सामान्य को समझना चाहता है तो उसके लिए सब निक्षेपोंका कथन करना चाहिए, क्योंकि विशेष धर्मोका निर्णय हुए बिना सामान्य धर्मका निर्णय नहीं हो सकता । दूसरे और तीसरे प्रकारके श्रोता यदि सन्देहमें हों तो उनका सन्देह दूर करनेके लिए सब निक्षेपोंका कथन करना चाहिए। और यदि उन्होंने विपरीत समझा हो तो भी प्रकृत अर्थके निर्णयके लिए सब निक्षेपोंका कथन करना चाहिए। कहा भी है-अप्रकृत विषयके निवारण के लिए तथा प्रकृत अर्थका कथन करनेके लिए, संशयको दूर करनेके लिए और तत्त्वार्थका निश्चय करनेके लिए निक्षेपोंका कथन करना चाहिए। क्योंकि निक्षेपोंको छोड़कर वर्णन किया गया सिद्धान्त,
१. जुत्ते सुजुत्तिमग्गे भ० ज० ॥
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