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________________ -२६९ ] नयचक्र १३५ स्यादनेकान्त एव तत्त्वनिर्णीतिरित्याह एयंते जिरवेक्खे णो सिज्झइ विविहभावगं दव्वं । तं तहव अणेयंते इदि बुझह सिय अणेयंतं ॥२६९॥ उक्तंच जं खओवसमं णाणं समग्गरूवं जिणेहि पण्णत्तं । तं सियगाही होदि हु सपरसरूवेण णिभंतं ॥ इति नयाधिकारः । विशेषार्थ-जब तत्त्वको खोज की जाती है तो उस समय युक्तिकी उपयोगिता होती है। अपनी बुद्धि, तर्क और आगमके द्वारा उस समय तत्त्वको खोजनेका पूरा प्रयत्न करना चाहिए। और जब तर्क और आगमके द्वारा तत्त्वको जान लिया जाये तो उसको प्राप्तिके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए और वही समय आराधनाका होता है । उस आराधनाके द्वारा युक्ति और आगमसे जाने हुए तत्त्वका साक्षात्कार किया जाता है । वह समय युक्ति और तर्कके प्रयोगका नहीं है। युक्ति और तर्क तो पराश्रित होनेसे परोक्ष होते हैं। किन्तु अनुभूति या साक्षात्कार तो प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्षके लिए पराश्रित परोक्षकी आवश्यकता ही नहीं है। अतः तत्त्वको खोजके लिए उसको समझनेके लिए व्यवहारनय उपयोगी है। अतः उस कालमें उसके द्वारा वस्तुस्वरूपका विश्लेषण करके उसे अच्छी तरह समझना चाहिए। और जब समझ लिया जाये तो स्वानुभूतिके द्वारा उस ज्ञात तत्त्व का साक्षात्कार करनेका प्रयत्न करना चाहिए। इसीसे स्वानुभूतिको शुद्ध नयात्मक कहा है। स्वानुभूतिकाल स्वानुभूतिका ही काल है; युक्ति या तर्कका नहीं। यही बात समयसारकलश ९ में अमृतचन्द्रजीने कही है कि शुद्धनयके विषयभूत आत्माका अनुभव होनेपर नय, निक्षेप, प्रमाण सब विलीन हो जाते हैं । परमात्मतत्त्वके विचारकालमें ही प्रमाण नय निक्षेपको उपयोगिता है; किन्तु अनुभूतिकालमें तो प्रमाण, नय, निक्षेपके द्वारा ज्ञेय शुद्धात्मस्वरूपके दर्शन हो जाते हैं । अतः युक्तिका काल भिन्न है और अनुभूतिका काल भिन्न है । युक्तिकालमें अनुभति नहीं होती और अनुभूतिकालमें युक्तिको आवश्यकता ही नहीं रहती। आगे कहते हैं कि कथंचित् अनेकान्तमें ही तत्त्वका निर्णय होता है निरपेक्ष एकान्तवादमें अनेक भावरूप द्रव्यको सिद्धि नहीं होती। इसी तरह एकान्त निरपेक्ष अनेकान्तवादमें भी तत्त्वको निर्णीति नहीं होती। इसलिए कथंचित् अनेकान्तवादको जानना चाहिए ॥२६९॥ विशेषार्थ-पहले लिख आये हैं कि सर्वथा एकान्तकी तरह सर्वथा अनेकान्त भी ठीक नहीं है । जैसे निरपेक्ष एकान्तवादमें भावाभावात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, नित्यानित्यात्मक, एकानेकात्मक तत्त्वकी सिद्धि नहीं होती, वैसे ही एकान्त निरपेक्ष अनेकान्तवादमें भी तत्त्वके यथार्थ स्वरूपका निर्णय नहीं होता। एक-एक मिलकर ही अनेक होते हैं । अतः एकान्तोंके समूहका नाम ही अनेकान्त है। यदि एकान्तोंको न माना जायेगा तो एकान्तोंके समूहरूप अनेकान्तका भी लोप हो जायेगा । अतः सर्वथा एकान्तकी तरह सर्वथा अनेकान्त भी उपादेय नहीं है। जैसे सापेक्ष एकान्तवाद यथार्थ है वैसे ही एकान्त सापेक्ष अनेकान्तवाद यथार्थ है। पहलेको विषय करनेवाला ज्ञान सुनय कहलाता है और दूसरा प्रमाणका विषय है। अतः नयदृष्टिसे एकान्त है और प्रमाणकी अपेक्षा अनेकान्त है।दोनों ही यथार्थ हैं। क्योंकि यद्यपि वस्तु अनेकधर्मात्मक है, किन्तु ज्ञाता अनेकधर्मात्मक वस्तुका भी अपने अभिप्रायके अनुसार किसी एक ही धर्मकी प्रधानतासे कथन करता है । जैसे देवदत्त किसोका पुत्र है तो किसीका पिता भी है। अतः वास्तवमें न तो वह केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है,तथापि अपने पिताको दृष्टिसे वह पुत्र ही है और अपने पुत्रकी दृष्टिसे वह पिता ही है । इस तरह उसका पिता-पुत्ररूप अनेकान्त है और केवल पिता या केवल पुत्ररूप एकान्त है। इन दोनों रूपोंको स्वीकार करने पर ही देवदत्तके सम्बन्धोंका या धर्मोंका यथार्थज्ञान होता है। इसी तरह एकान्त सापेक्ष अनेकान्तवादसे ही वस्तु के यथार्थ स्वरूपका बोध होता है । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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