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________________ १३८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० २७७ निक्षेपभेदमुदाहरति आगमणोआगमदो तहेव भावो वि होदि देव्वं वा। अरहंतसत्थजाणो आगमभावो हु अरहंतो ॥२७७॥ 'तग्गुणरायपरिणदो णोआगमभाव होइ अरहंतो। तग्गुणराई झादा केवलणाणी हु परिणदो भणिओ ॥२७८॥ अह गुणपज्जयवंतं दव्वं भणियं खु अण्णसूरीहिं। भावं चिण्हं तस्स य तेहिं पिय एरिसं भणियं ॥२७९॥ णो इटुं भणियव्वं भिण्णं काऊण एसु णिक्खेवं । तस्सेव दंसणटुं भणियं काऊणमिह सुत्तं ॥२८०॥ वह उस विषयक शास्त्रके चिन्तनमें नहीं लगा है उसे आगम द्रव्य अरिहन्त कहते हैं । नोआगमद्रव्यके तीन भेद हैं-ज्ञायक शरीर, भावि और कर्मनोकर्म । ज्ञायक शरीरके तीन भेद हैं-च्युत, च्यावित और त्यक्त ॥२७५-२७६|| विशेषार्थ-जो भाविपरिणामके प्रति अभिमुख होता है उसे द्रव्य कहते हैं और उसके निक्षेपको द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। उसके दो भेद हैं--आगमद्रव्य निक्षेप और नोआगमद्रव्य निक्षेप। जैसे जो जीव अरिहन्त विषयक शास्त्रको जानता है--जिस शास्त्रमें अरिहन्तका स्वरूपादि वर्णित है उसको जानता है किन्तु उस समय किसी अन्य कार्यमें लगा है, उस शास्त्रका चिन्तन नहीं कर रहा उस समय वह मनुष्य आगमद्रव्य निक्षेपरूपसे अरिहन्त है। नोआगमद्रव्य निक्षेपके तीन भेद है। उस अरिहन्त विषयक शास्त्रके ज्ञाताके शरीरको ज्ञायक शरीर कहते हैं । उसके भी तीन भेद हैं-भूतशरीर, वर्तमानशरीर और भाविशरीर । भूत शरीरके भी तीन भेद है-च्युत, च्यावित और त्यक्त। पूरी आयु भोग लेनेपर जो शरीर स्वतः पके आमकी तरह छुट जाता है वह च्युतशरीर है। और जो शरीर आकस्मिक घातसे छुटता है वह और जो शरीर संन्यासमरणपूर्वक छूटता है वह त्यक्त है। जो जीव अरिहन्त अवस्थाको प्राप्त करनेके अभिमुख है वह भावि नोआगमद्रव्य अरिहन्त है । उसके कर्म,नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्य हैं। आगे भावनिक्षेपका उदाहरण देते हैं द्रव्यनिक्षेपकी तरह भावनिक्षेपके भी दो भेद हैं-आगमभावनिक्षेप और नोआगमभावनिक्षेप। जो अरिहन्त विषयक शास्त्रका ज्ञाता उसमें उपयुक्त है वह आगमभाव अरिहन्त है । और जो अरिहन्तके गुणरूप परिणत है, वह नोआगमभाव अरिहन्त है । अरिहन्तके गुणोंसे युक्त केवलज्ञानीको अर्हन्तके गुणरूप परिणत कहा है ।।-७७-२७८॥ अथवा अन्य आचार्योंने गुणपर्यायवान्को द्रव्य कहा है। और उसका चिह्न भाव है ऐसा भी उन्होंने कहा है । उनको भिन्न करके उनमें निक्षेपका कथन नहीं करना चाहिए। इसी बातको बतलानेके लिए यहाँ सूत्रका कथन किया है ॥२७९-२८०॥ विशेषार्थ-आचार्य विद्यानन्द स्वामीने तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें (१-५) निक्षेपोंका कथन करते हुए यह शंका उठायी है कि अनागत परिणाम विशेषके प्रति जो अभिमुख हो उसे द्रव्य कहते हैं-यह द्रव्यका लक्षण उचित नहीं है। सूत्रकारने तो गुणपर्यायवान्को द्रव्य कहा है । अतः आगमसे विरोध आता है। इसका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है-उक्त शंकाकार सूत्रके अर्थसे अनजान है । सूत्रकारने द्रव्यको पर्यायवाला १. दन्वट्ठो आ० ज० । २. सग्गुण ज. क० ख० । 'णामजिणा जिणणामा ठवणजिणा तह य ताह पडिमाओ। दवजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥-बोधप्राभृत गा० २८ की टीका में । ३. दव्वं खल भणिय अ० ज०। ४. तिण्हं मु० । भावं लक्खण त-ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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