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________________ -२५७ ] . नयचक्र १२९ विशेषार्थ-चूँकि शब्द एक समयमें वस्तुके अनेक धर्मोका बोध नहीं करा सकता,इसलिए वक्ता किसी एक धर्मका अवलम्बन लेकर ही वचनव्यवहार करता है। यदि वक्ता एक धर्मके द्वारा पूर्णवस्तुका बोध कराना चाहता है, तो उसका वाक्य प्रमाणवाक्य कहा जाता है और यदि एक ही धर्मका बोध कराना चाहता है, शेष धर्मोके प्रति उदासीन है तो उसका वाक्य नयवाक्य कहा जाता है। अतः जैसे प्रमाण और नयकी व्यवस्था सापेक्ष है वैसे ही प्रमाणवाक्य और नयवाक्यकी विवक्षा भी सापेक्ष है। प्रमाण वाक्यमें वस्तुगत सब धर्मोकी मुख्यता रहती है और नयवाक्यमें जिस धर्मका उल्लेख किया जाता है वही धर्म मुख्य होता है, शेष धर्म गौण होते हैं। स्वामी विद्यानन्दने युक्त्यनुशासनकी टीका ( पृ० १०५) में लिखा है कि स्यात्कार ( स्यात् पद) के बिना अनेकान्तकी सिद्धि नहीं हो सकती और एवकार (ही) के बिना यथार्थ एकान्तका अवधारण नहीं हो सकता। 'स्यादस्ति जीवः' 'जीव किसी अपेक्षासे है' इस वाक्यमें सब धर्मोकी प्रधानता होनेसे यह प्रमाण वाक्य है। और स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा जीव अस्ति स्वरूप है और परद्रव्यादिको अपेक्षा नास्तिस्वरूप है-यह नयवाक्य है क्योंकि इसमें एक ही धर्मपर जोर दिया गया है। नयचक्रके कर्ताने स्यात् पद सहित वाक्यको प्रमाण वाक्य कहा है और स्यात् पदके साथ एवकार ( ही ) सहित वाक्यको नयवाक्य कहा है। यही बात आचार्य जयसेनने 'पंचास्तिकाय' और 'प्रवचनसारको अपनी टीकामें कही है। पंचास्तिकायकी टोकामें उन्होंने लिखा है-'स्यादस्ति' यह वाक्य सम्पूर्ण वस्तुका बोध कराता है, अतः प्रमाण वाक्य है और 'स्यादस्त्येव द्रव्यम्' यह वाक्य वस्तुके एक धर्मका ग्राहक होनेसे 'नयवाक्य है।"प्रवचनसार' की टीकामें उन्होंने लिखा है-पंचास्तिकायमें 'स्यादस्ति' इत्यादि वाक्यसे प्रमाण सप्तभंगीका कथन किया है और यहाँ स्यादस्त्येव वाक्यमें जो एवकार ग्रहण किया है वह नय सप्तभंगीको बतलानेके लिए है। इस तरह प्रमाण और नयके भेदसे सप्तभंगोके भी दो भेद हो जाते हैं-प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी। प्रश्नवश एक वस्तुमें विरोध रहित विधि-निषेधको अवतारणाको सप्तभंगी कहते हैं। चूँकि वे वाक्य सात ही होते हैं, इसलिए उन्हें सप्तभंगी कहते हैं । शायद कोई कहे कि वस्तुमें विधि ( है ) की कल्पना ही सत्य है, इसलिए केवल विधिवाक्य (है) ही ठीक है किन्तु ऐसी मान्यता उचित नहीं है निषेधकल्पना ( नास्ति ) भी यथार्थ है । यदि कोई कहे कि निषेध कल्पना ही यथार्थ है तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु केवल अभावरूप ही नहीं है। यदि कोई कहे कि वस्तुके अस्तित्वधर्मका कथन करनेके लिए विधिवाक्य और नास्तित्वधर्मका कथन करने के लिए निषेधवाक्य ये दो ही वाक्य हैं, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। पहले विधिवाक्य और दूसरे निषेधवाक्यमें एक-एक धर्मकी ही प्रधानता है, किन्तु तीसरे वाक्य ( स्यादस्ति नास्ति ) में दोनों ही धर्म प्रधान हैं । उसका कथन केवल विधिवाक्य या केवल निषेधवाक्यसे नहीं किया जा सकता। यदि कोई कहे कि तीन ही वाक्य पर्याप्त हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एक साथ दोनों धर्मोंको प्रधान रूपसे कथन करनेकी विवक्षामें चतुर्थ 'स्यादवक्तव्य' वाक्य भी आवश्यक है। शायद कोई कहे कि चार हो है तो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है,क्योंकि विधि-निषेध और विधि-निषेधके साथ अवक्तव्यको विषय करनेवाले तीन अन्य वाक्य भी आवश्यक है। इस प्रकार विधिकल्पना (१), निषेधकल्पना (२), क्रमसे विधिनिषेध कल्पना (३), एक साथ विधिनिषेधकल्पना (४), विधिकल्पना सहित एक साथ विधिनिषेधकल्पना (५), निषेधकल्पना सहित एक साथ विधिनिषेधकल्पना (६) और क्रमसे तथा एक साथ विधिनिषेध कल्पना (७), ये सात भंग होते हैं । किन्तु प्रत्यक्षादिसे विरुद्ध विधिनिषेध कल्पनाका नाम सप्तभंगी नहीं है, प्रत्यक्षादिसे विरोधरहित विधिनिषेध कल्पनाका नाम सप्तभंगी है। इसके साथ ही अनेक वस्तुओंमें पाये जाने वाले धर्मोको लेकर सप्तभंगी प्रवर्तित नहीं होती, किन्तु एक ही वस्तुके धर्मको लेकर सप्तभंगी प्रवर्तित होती है। एक वस्तुमें पाये जानेवाले अनन्तधर्मोको लेकर एक ही वस्तुमें अनन्त सप्तभंगियाँ भी हो सकती हैं । चूँकि प्रश्नके प्रकार सात ही होते हैं, इसलिए भंग भी सात ही होते हैं । इसीलिए सप्तभंगीके लक्षणमें 'प्रश्नवश' यह पद रखा गया है । सात प्रकारके प्रश्नोंका कारण है-जिज्ञासाके सात प्रकारोंका होना, और जिज्ञासाके सात प्रकारोंके होनेका कारण है-संशयके प्रकारोंका सात होना। और सात प्रकारके संशय का कारण है-संशयविषयक वस्तुधर्मके सात ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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