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१२८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० २५४केवलज्ञानसम्मिश्रो दिव्यध्वनिसमुद्भवः। अत एव हि स ज्ञेये सर्वज्ञैः परिभाषितः ।।२।। सिद्धमन्त्रो यथा लोके एकोऽनेकार्थदायकः ।
स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय एकोऽनेकार्थसाधकः ॥३॥ सापेक्षा निरपेक्षाश्च महंगा यथा तथाचष्टे
सत्तेव हंति भंगा पमाणणयदणयभेवजत्तावि। सियसाक्खपमाणा गयेण णय दुणय णिरवेक्खा ॥२५४॥ अत्पित्ति पत्थि वोवि य अव्वत्तव्वं सिएण संजुत्तं ।
अव्वत्तव्वा ते तह पमाणभंगी सुणायव्वा ॥२५५।। सप्तमनयभड्गीमाह
अस्थिसहावं दव्वं सद्दव्वादीसु गाहियणयेण । तं पिय णत्थिसहावं परदव्यादीहि गहिएण ॥२५६॥ उहयं उहयणयेण अव्वत्तव्वं च नोण समुदाए।
ते तिय अव्वत्तव्वा णियणियणयअत्थसंजोए ॥२५७॥ हो सकती। निपातसे इस स्यात् शब्दकी निष्पत्ति हुई है। यह विरोधका नाश करनेवाला है अर्थात् एक ही वस्तुको सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य मानने में तो विरोध पैदा होता है, क्योंकि जो सर्वथा नित्य है वह अनित्य किस प्रकार हो सकती है और जो सर्वथा अनित्य है वह नित्य किस प्रकार हो सकती है ! किन्तु एक ही वस्तुको स्यात् नित्य और स्यात् अनित्य कहनेमें कोई विरोध नहीं आता । जो किसी अपेक्षासे नित्य है, वही अन्य अपेक्षासे अनित्य भी हो सकती है।अतः स्याद्वाद विरोधका नाशक है। भगवान् केवलीकी दिव्यध्वनिसे इसका जन्म हुआ है अर्थात् केवलज्ञानीने स्याद्वादका आविष्कार किया है। क्योंकि जैसे केवलज्ञान सब द्रव्योंको एक साथ ग्रहण कर सकता है, उस प्रकार केवलज्ञानीको वाणी भी सबको एक साथ नहीं कह सकती क्योंकि वचनकी प्रवत्ति तो क्रमसे ही होती है। इसलिए केवलज्ञानके द्वारा ज्ञात अनेकान्तका सचक या द्योतक शब्द प्रत्येक वाक्यके साथ सम्बद्ध रहता है-ऐसा सर्वज्ञ केवलज्ञानीने कहा है। जैसे सिद्ध किया गया एक मन्त्र अनेक अभीष्ट फलोंको प्रदान करता है वैसे ही एक 'स्यात' शब्दको भी अनेक अर्थका-अनेक धर्मात्मक पदार्थका साधक जानना चाहिए।
आगे सापेक्ष और निरपेक्ष सात भंगोंका कथन जिस प्रकार होता है उसे कहते हैं
प्रमाण, नय और दुर्नयके भेदसे युक्त सात ही भंग होते हैं। स्यात् सापेक्ष भंगोंको प्रमाण कहते हैं, नयसे युक्त भंगोंको नय कहते है और निरपेक्ष भंगोंको दुर्नय कहते हैं ।।२५४॥
प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगीको कहते हैं
स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य और स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य ये प्रमाणसप्तभंगी जानना चाहिए। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावसे द्रव्य अस्तिस्वरूप है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावसे नास्तिस्वरूप है। स्वद्रव्यादिचतुष्टय परद्रव्यादिचतुष्टयसे अस्ति नास्ति स्वरूप है। दोनों धर्मोको एक साथ करनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है। इसी प्रकार अपने-अपने नयके साथ अर्थको योजना करनेपर अस्ति अवक्तव्य, नास्तिअवक्तव्य और अस्तिनास्ति अवक्तव्य हैं ॥२५५-२५७।। १-२. एकानेका-अ. आ० क० ख० । ज० प्रती श्लोकोऽयं नास्ति । ३. "सिय अत्थि णत्थि उभयं अव्यत्तन्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसबसेण संभवदि ॥१४॥' पञ्चास्ति० । ४. 'अत्थि त्ति याणत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं । पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥२३॥'-प्रवचनसार । ५. तेण ज०।
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