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-२५३ ] नयचक्र
१२७ अवरोप्परसावेक्खं णयविसयं अह पमाणविसयं वा।
तं सावेक्खं 'भणियं णिरवेक्खं ताण विवरीयं ॥२५२॥ स्याद्वादलान्छनस्य स्वरूपं निरूपयति
णियमणिसेहणसीलो णिपादणादो य जो हु खलु सिद्धो।
सो सियसहो भणिओ जो साक्खं पसाहेदि ॥२५३॥ उक्तंच
त्रिसंज्ञिकोऽयं स्याच्छन्दो युक्तोऽनेकान्तसाधकः ।
निपातनात्समुद्भूतो विरोधध्वंसको मतः ॥१॥ आगे इसी सापेक्षता और निरपेक्षताको ग्रन्थकार स्पष्ट करते हैं
नयका विषय हो या प्रमाणका विषय हो जो परस्परमें सापेक्ष होता है उसे सापेक्ष कहा है और जो उसके विपरीत होता है अर्थात् अन्य निरपेक्ष होता है उसे निरपेक्ष कहा है ॥२५२॥
आगे स्याद्वादका स्वरूप कहते हैं
जो सर्वथा नियमका निषेध करनेवाला है और निपातरूपसे जो सिद्ध है वह 'स्यात्' शब्द कहा गया है, वह वस्तुको सापेक्ष सिद्ध करता है ।।२५३॥
विशेषार्थ-संस्कृत व्याकरणके अनुसार लिङ् लकारमें भी 'स्यात्' यह क्रियारूप पद सिद्ध होता है, परन्तु स्याद्वादमें जो 'स्यात्' पद है वह क्रियारूप नहीं है, किन्तु संस्कृतके 'एव' 'च' आदि शब्दोंकी तरह निपातरूप अव्यय है। निपातरूप 'स्यात्' शब्दके भी अनेक अर्थ होते हैं जिनमेंसे एक अर्थ संशय भी है। यथा 'स्यात् अस्ति'-शायद है। किन्तु स्याद्वादमें प्रयुक्त स्यात् शब्द संशयवाची भी नहीं है-उसका अर्थ शायद नहीं है। वह तो अनेकान्तका द्योतक है अथवा सूचक है। वस्तु सर्वथा सत् है, या सर्वथा असत है, या सर्वथा नित्य है अथवा सर्वथा अनित्य है-इस प्रकारके एकान्तवादोंका निराकरण करनेवाला अनेकान्त है। यथा-वस्तु, स्यात् सत् है, स्यात् असत् है, स्यात् नित्य है या स्यात् अनित्य है। इन वाक्यों में प्रयुक्त स्यात शब्द वस्तुके सत्त्वधर्मके साथ असत्त्व धर्मका और नित्यत्वधर्मके साथ अनित्यत्व धर्मका भी द्योतन करता है। उससे प्रकट होता है कि वस्तु केवल सत् या केवल असत नहीं है, किन्तु कथंचित् या किसी अपेक्षासे सत् है और किसी अपेक्षासे असत् है। कथंचित शब्द स्याद्वादका पर्याय है। उसका अर्थ हिन्दी में 'किसी अपेक्षासे'
जैसे केवलज्ञान समस्त द्रव्योंको एक साथ ग्रहण कर लेता है, उस तरह कोई वाक्य पूर्णवस्तुको एक साथ नहीं कह सकता । इसीलिए वाक्यके साथ उसके वाच्यार्थका सूचक 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त किया जाता है। उसके बिना अनेकान्तरूप अर्थका बोध नहीं हो सकता। यदि वाक्यके साथ 'स्यात्' शब्दका प्रयोग न हो, तब भी जानकारोंसे वह छिपा नहीं रहता ; क्योंकि किसी पद या वाक्यका अर्थ सर्वथा एकान्तरूप नहीं है। चाहे वह प्रमाणरूप वाक्य हो या नयरूप वाक्य हो। प्रमाण और नयकी तरह वाक्य भी प्रमाणरूप और नयरूप होता है। प्रमाणको तरह प्रमाण वाक्य सकलादेशी होता है और नयको तरह नयवाक्य विकलादेशी होता है। इन दोनों प्रकारके वाक्योंमें केवल दृष्टिभेदका ही अन्तर है। नयवाक्यमें एक धर्मकी मुख्यता होती है । प्रमाण वाक्यमें एक धर्ममुखेन सभी धर्मोका ग्रहण होनेसे सभीकी मुख्यता रहती है।
आगे ग्रन्थकार अपने कथनके समर्थन में प्रमाण उद्धृत करते हैं। कहा भी है-यह 'स्यात्' शब्द तीन संज्ञावाला है-अर्थात् किंचित, कथंचित, कथंचन । ये तीन स्याद्वादके पर्याय शब्द है, जिनका अर्थ "किसी अपेक्षासे' होता है।अतः वह 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका साधक है-उसके बिना अनेकान्तकी सिद्धि नहीं
१. -वेक्खं तत्तं णि मु०। २. 'वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३॥ स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभङ्गानयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥१०४॥ भाप्तमी० । ३. स्याच्छब्दो पुज्योऽने- क. ख० ज० ।
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