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________________ १२६ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०२४९ - इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खुजं हवे दव्वं । णयविसयं तस्संसं सियभिण्णं तंपि पुन्वुत्तं ॥२४९ ।। युक्तियुक्तार्थ एव सम्यक्त्वहेतुर्नान्यद् इत्याह: सामण्ण अह विसेसे दम्वे गाणं हवेइ अविरोहो । साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं ॥२५०॥ स्वमावानां यथा सम्यमिथ्यास्वरूपं सापेक्षता च तथाह सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूबा ह तेवि णिरवेक्खा। तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हपि णायव्वं ॥२५१॥ हो जाता है.तब आगेका विचार चलता है। ज्ञान और रूप आदि गुण तो किन्हीं द्रव्योंमें पाये जाते हैं और किन्हीं में नहीं पाये जाते। क्रिया भी केवल जीव और पुदगल द्रव्यमें हो पायी जाती है, किन्तु अस्तित्व तो सभी सत्पदार्थों में पाया जाता है। अतः सब स्वभावोंका मूर्धन्य अस्ति स्वभाव ही है। इसीलिए उसे परम स्वभाव कहा है। इस प्रकार जो सत्स्वरूप द्रव्य है वह प्रमाणका विषय है और उसका एक अंश नयका विषय है । ये प्रमाण और नय परस्परमें कथंचिद् भिन्न हैं, यह पहले कहा है ॥२४९।। विशेषार्थ-सम्पूर्ण वस्तुके ग्राहक ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। और उसके एक अंशके ग्राहक ज्ञानको नय कहते हैं । यही इन दोनोंमें अन्तर है । आगे कहते हैं कि युक्तियुक्त अर्थ ही सम्यक्त्वका कारण है, अन्य नहीं सामान्य अथवा विशेषरूप द्रव्यमें जो विरोध रहित ज्ञान होता है वह सम्यक्त्वका साधक है, जो उससे विपरीत होता है वह नहीं ॥२५०॥ विशेषार्थ-वस्तु सामान्य विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक है। वही प्रमाणका विषय है। उनमेंसे सामान्यांश या द्रव्यांशका ग्राहक द्रव्याथिकनय है और विशेष या पर्यायका ग्राहक पर्यायार्थिक नय है । सामान्य और विशेपमें या द्रव्य और पर्याय में कोई विरोध नहीं है। अतः द्रव्याथिकनय द्रव्यकी प्रधा ग्रहण करते हुए भी पर्यायका निषेध नहीं करता। इसी तरह पर्यायाथिकनय पर्यायकी प्रधानतासे वस्तुको ग्रहण करते हुए भी द्रव्यका निषेध नहीं करता। यदि दोनों ऐसा करें तो दोनों मिथ्या कहलायेंगे, क्योंकि वस्तु न केवल द्रव्यरूप ही है और न केवल पर्यायरूप ही है। किन्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। अतः सामान्य और विशेषरूप द्रव्यका विरोध रहित ज्ञान ही सम्यक्त्वका कारण होता है। उससे विपरीत ज्ञान सम्यक्त्वका बाधक है। स्वभाव जिस प्रकार सम्यक् और मिथ्यारूप होते हैं उसे तथा उनकी सापेक्षताको कहते हैं 'स्यात्' सापेक्ष सम्यक् होते हैं और 'स्यात्' निरपेक्ष मिथ्या होते हैं । अतः स्यात् शब्दसे दोनोंका विषय जानना चाहिए ॥२५१।। । विशेषार्थ-'स्यात्' शब्दका अर्थ है कथंचित् या किसी अपेक्षासे । जैसे वस्तु कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है । अर्थात् द्रव्यरूपकी अपेक्षासे नित्य है और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है। ऐसा कथन तो ठीक है । किन्तु यदि स्यात्की अपेक्षा न करके कहा जाये कि वस्तु नित्य ही है या वस्तु अनित्य ही है तो वह मिथ्या है, क्योंकि वस्तु न तो सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही है। इसलिए सापेक्ष रूपसे वस्तु स्वरूपको जानना ही यथार्थ है। १. सियभणितं मु. । २. विसेसं क० ख० मु० ज०। ३. अविरोहे ज०। ४. सोहइ ज.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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