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१३० द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० २५८ - अत्थेव णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं तहेव पुण तिवयं ।
तहे सिय णयणिरवेक्खं जाणसुदठवे दुणयभंगी ॥२५८॥ सप्तमङगीविवरणायां ज्ञेयं मगरचनोपायं धर्मधर्मिणोः कथंचिदेकरवानेकरवं चाह--
एकणिरुद्ध इयरो पडिवक्खो अवरेय सब्भावो।
सव्वेसि स सहावे कायव्वा होइ तह भंगा ॥२५९॥ प्रकार होना । आगे उसीको स्पष्ट करते हैं-अस्तित्व या सत्त्व वस्तुका धर्म है-उसके अभावमें वस्तुका हो अभाव हो जायेगा । इसी तरह कथंचित् असत्त्व भी वस्तुका धर्म है, क्योंकि स्वरूप आदि की तरह यदि पररूप आदिसे भी वस्तुको असत् नहीं माना जायेगा तो वस्तुका कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन सकेगा और ऐसी स्थितिमें 'यह घट ही है पट नहीं है' ऐसा नहीं कहा जा सकेगा। इसी तरह क्रमसे विवक्षित अस्ति, नास्ति आदिको भी वस्तुका धर्म समझना चाहिए। जो अस्ति है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावसे है, अन्य द्रव्यादिसे नहीं। जैसे घड़ा पार्थिव रूपसे, इस क्षेत्रसे, इस कालकी दृष्टिसे तथा अपनी वर्तमान पर्यायोंसे है, अन्यसे नहीं । अतः घड़ा स्यादस्ति और स्यान्नास्ति है। इस तरह स्वसत्ताका सद्भाव और पर सत्ताके अभावके अधीन वस्तुका स्वरूप होनेसे वह उभयात्मक है। भावरूपता और अभावरूपता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। अभाव अपने सद्भाव तथा भावके अभावकी अपेक्षा सिद्ध होता है तथा भाव अपने सद्भाव तथा अभावके अभावकी अपेक्षासे सिद्ध होता है। यदि अभावको एकान्तरूपसे अस्ति स्वीकार किया जाय तो जैसे वह अभाव रूपसे अस्ति है,उसी तरह भावरूपसे भी अस्ति हो जानेसे भाव और अभावके स्वरूप में सांकर्य हो जायेगा। इसी तरह यदि अभावको सर्वथा नास्ति माना जाये तो जैसे वह भावरूपसे नास्ति है, उसी तरह अभाव रूपसे भी नास्ति होनेसे अभावका सर्वथा लोप हो जायेगा। अतः घटादि स्यादस्ति और स्यान्नास्ति है । यहाँ घटमें जो पटादिका नास्तित्व है, वह भी घटका ही धर्म है, उसका व्यवहार पटकी अपेक्षासे होता है । जब दो गुणोंके द्वारा एक अखण्ड पदार्थको एक साथ विवक्षा होती है तो चौथा अवक्तव्य भंग होता है। जैसे प्रथम और दूसरे भंगमें एक कालमें एक शब्दसे एक गुणके द्वारा समस्त वस्तुका कथन हो जाता है, उस तरह जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे एक साथ एक कालमें एक शब्दसे वस्तुको कहनेकी इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य होती है। क्योंकि वैसा शब्द और अर्थ नहीं है। इस चतुर्थ भंगके साथ पहले के तीन भंगोंकी संयोजनासे पांचवां, छठा और सातवां भंग निष्पन्न होता है।
आगे दुर्नयभंगी बतलाते हैं
स्यात् पद तथा नयनिरपेक्ष वस्तु अस्ति ही है, नास्ति ही है, उभयरूप ही है, अवक्तव्य ही है, अस्ति अवक्तव्य ही है, नास्ति अवक्तव्य ही है, अस्तिनास्ति अवक्तव्य ही है,यह दुनयभंगी जानना चाहिए ।।२५८॥
विशेषार्थ-स्यात पदके साथ प्रमाण सप्तभंगी और नयके साथ नय सप्तभंगी होती है। दोनों ही भंगियों में प्रतिपक्षी धर्मोका निराकरण नहीं होता। किन्तु जिस सप्तभंगीमें न तो स्यात् पद हो और न नयदृष्टि हो, और इस तरह वस्तुको सर्वथा सत् या सर्वथा असत् या सर्वथा अवक्तव्य आदि रूप कहा जाता हो वह दुर्नय सप्तभंगी है। अनेकान्तके ज्ञानको प्रमाण वस्तुके एक धर्मके जाननेको नय और अन्य धर्मोके निराकरण करनेवाले ज्ञानको दुर्नय कहते हैं, अतः दुर्नयको तरह दुर्नयभंगी भी त्याज्य है ।
आगे सप्तभंगीके विवरणमें भंग रचनाका उपाय और धर्म तथा धर्मीके कथंचित एकत्व और अनेकत्व को कहते हैं
वस्तुके किसी एक धर्मको ग्रहण करने पर दूसरा उसका प्रतिपक्षी धर्म होता है।वे दोनों ही धर्म वस्तुके स्वभाव हैं। सभी वस्तुओंके स्वभावमें सप्तभंगीकी योजना करना चाहिए ॥२५९।।
३. अणिवरे क. ख० । अणवरेई ख. मु.
१. सिय तह क. ख. ज.। २. जाण सुदन्वेसु अ.क. खः। ज.। ४. भंगी ख० मु.।
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