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________________ -२३३ ] नयचक्र स्वजातिगुणे स्वजातिद्रव्यावरोपणोऽसद्भूतव्यवहारः रूवं पि भणइ दव्वं ववहारो अण्णअत्थसंभूदो। सेओ जह पासाओ गुणेसु दव्वाण उवयारो ॥२३०॥ स्वजातिगुणे स्वजातिपर्यायारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः णाणं पि हु पज्जायं परिणममाणो दु गिण्हए जह्मा। ववहारो खलु जंपइ गुणेसु'उवयरियपज्ज़ाओ ॥२३॥ स्वजातिविभावपर्याये स्वजातिव्यावरोपणोऽसद्भूतव्यवहारः ठूण थूलखंधं पुग्गलदव्वेत्ति जंपए लोए। उवयारो पज्जाए पुग्गलदव्वस्स भणइ ववहारो ॥२३२।। स्वजातिपर्याये स्वजातिगुणावरोपणोऽसद्भूतव्यवहारः दठूण देहठाणं वण्णंतो होइ उत्तम रूवं । गुण उवयारो भणिओ पज्जाए णस्थि संदेहो ॥२३३॥ विशेषार्थ-पुद्गलका एक परमाणु एक प्रदेशी होता है। उसके दो आदि प्रदेश नहीं होते । किन्तु वही परमाणु अन्य परमाणुओंके साथ मिलने पर उपचारसे बहुप्रदेशी कहा जाता है। परमाणुओंके मेलसे जो स्कन्ध बनता है वह पुद्गलको विभावपर्याय है और परमाणु पुद्गल द्रव्य है । दोनों ही पौद्गलिक होनेसे एक जातिके हैं। आगे स्वजाति गुणमें स्वजाति द्रव्यका आरोप करनेवाले असद्भूत व्यवहारनयको कहते हैं अन्य अर्थमें होनेवाला व्यवहार रूपको भी द्रव्य कहता है, जैसे सफेद पत्थर । यह गुणोंमें द्रव्यका उपचार है ॥२३०॥ विशेषार्थ-सफेद रूप है और पत्थर द्रव्य है. दोनों ही पौद्गलिक होनेसे एकजातीय हैं। सफेद रूपमें पाषाण द्रव्यका उपचार करना स्वजातिगुणमें स्वजाति द्रव्यका उपचार करनेवाला असद्भुत व्यवहारनय है। स्वजाति गुण में स्वजाति पर्यायका आरोपण करनेवाले असद्भूत व्यवहारनयका स्वरूप कहते हैं परिणमनशोल ज्ञानको पर्याय रूपसे कहा जाता है।इसे गुणोंमें पर्यायका उपचार करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं ॥२३१॥ विशेषार्थ-ज्ञान गुण है, किन्तुं वह भी परिणमनशील है अतः उसे ज्ञानपर्याय रूपसे कहना गुण में पर्यायका उपचार करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है । आगे स्वजाति विभाव पर्याय में स्वजाति द्रव्यका आरोप करनेवाले असदभूत व्यवहारनयका स्वरूप कहते हैं स्थूल स्कन्धको देखकर लोकमें उसे 'यह पुद्गल द्रव्य है' ऐसा कहते हैं। इसे पर्यायमें पुद्गल द्रव्यका आरोप करनेवाला व्यवहारनय कहते हैं ॥२३२॥ विशेषार्थ-अनेक पुद्गल परमाणुओंके मेलसे जो स्थूल स्कन्ध बनता है वह पुद्गल द्रव्यकी विभाव पर्याय है । उसे पुद्गल द्रव्य कहना स्वजाति पर्यायमें स्वजाति द्रव्यका आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। आगे स्वजाति पर्यायमें स्वजाति गुणका आरोप करनेवाले असद्भूत व्यवहारनयका स्वरूप कहते हैं शरीरके आकारको देखकर उसका वर्णन करते हुए कहना कि कैसा उत्तम रूप है, यह पर्यायमें गुणका उपचार है, इसमें सन्देह नहीं ॥२३३॥ १. उवयारय-अ० क० । २. पुग्गलदव्वेसु आ० ज० । ३. देहसारं आ० ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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