SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक स्वजातिपर्याये स्वजातिपर्यायावरोपणोऽसभूतव्यवहारःदरुणं पडिबिंबं लवदि हु तं चैव एस पज्जाओ । सज्जाइ असब्भूओ उवयरिओ नियज्जाइपज्जाओ ॥२२७॥ स्वजातिविजातिद्रव्ये स्वजातिविजातिगुणावरोपणं असद्भूतव्यवहारः - "यं जीवमजीवं तं पिय णाणं खु तस्स विसयादो । जो भणइ एरिसत्थं ववहारो सो असब्भूदो ॥२२८॥ स्वजातिद्रव्ये स्वजातिविभाव पर्यायारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः परमाणु एयदेशी बहुयपदेसी पयंपऐं जो हु । सो ववहारो ओ दव्वे पज्जायउवयारो ॥२२९॥ विशेषार्थ- - आत्मा अमूर्तिक है, अत: उसका ज्ञानगुण भी अमूर्तिक है । किन्तु जैसे कर्मबन्धके कारण अमूर्तिक आत्माको व्यवहारनयसे मूर्तिक कहा जाता है, वैसे ही कर्मबद्ध आत्माके इन्द्रियोंकी सहायता से होनेवाला मतिज्ञान भी मूर्त कहाता है । क्योंकि वह मूर्त इन्द्रियोंसे पैदा होता है, मूर्त पदार्थोंको जानता है, मूर्त के द्वारा उसमें बाधा उपस्थित हो जाती है, यह विजातीय गुण ज्ञानमें विजातीय गुण मूर्तताका आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है । आगे स्वजातीयपर्याय में स्वजातीय पर्यायका आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनयंका स्वरूप कहते हैं [ गा० २२७ प्रतिबिम्बको देखकर यह वही पर्याय है ऐसा कहा जाता है । यह स्वजाति पर्याय में स्वजाति पर्यायका उपचार करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है ||२२७॥ विशेषार्थ - दर्पण भी पुद्गलकी पर्याय है और उसमें प्रतिबिम्बित मुख भी पुद्गलकी पर्याय है तथा जिस मुखका उसमें प्रतिबिम्ब पड़ रहा है वह मुख भी पुद्गलकी पर्याय है । दर्पण में प्रतिबिम्बित मुखको देखकर यह कहना कि यह वही मुख है- यह स्वजाति पर्याय में स्वजातिपर्यायका आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है । आगे स्वजाति, विजाति द्रव्यमें स्वजाति विजातिगुणका आरोप करनेवाले असद्भूत व्यवहारनयको कहते हैं ज्ञेय जीव भी है और अजीव भी है ज्ञानके विषय होनेसे उन्हें जो 'ज्ञान' कहता है वह असद्भूत व्यवहारनय है || २२८ ॥ विशेषार्थ- - ज्ञान के लिए जीव स्वजाति द्रव्य है और जीवके लिए ज्ञान स्वजाति गुण है, क्योंकि जीव द्रव्य और ज्ञानगुण दोनों एक हैं । ज्ञानके बिना जीव नहीं और जीवके बिना ज्ञान नहीं । इसके विपरीत अजीव द्रव्य के लिए ज्ञानगुण विजातीय है और ज्ञानगुणके लिए अजीव द्रव्य विजातीय है; क्योंकि दोनोंमें से एक जड़ है तो दूसरा चेतन है । किन्तु ज्ञान जीवको भी जानता है और अजीवको भी जानता है । इसलिए ज्ञानके विषय होनेसे जीव और अजीवको ज्ञान कहना स्वजाति, विजाति द्रव्यमें स्वजाति, विजातिगुणका आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है । Jain Education International आगे स्वजातिद्रव्य में स्वजाति विभावपर्यायका आरोप करनेवाले असद्भूत व्यवहारनयको कहते हैंजो एकप्रदेशी परमाणुको बहुप्रदेशी कहता है उसे द्रव्यमें पर्यायका उपचार करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय जानना चाहिए ॥२२९॥ १. 'स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा ज्ञेये जीवेऽजोवे ज्ञानमिति कथनं ज्ञानस्य विषयत्वात्' - भालाप० । २. -यं जंपदे अ० क० मु० । 'स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा परमाणुर्बहु प्रदेशीति कथनमित्यादि' – आलाप० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy