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________________ १२० द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० २३४ सव्वत्थ पज्जयादो संतो भणिओ जिणेहिं ववहारो। जस्स ण हवेइ संतो हेऊदोण्हपि तस्स कुदो ॥२३४॥ चउगइ इह संसारो तस्स य हेऊ सुहासुहं कम्मं । जइ ता मिच्छा किह सो संसारो संखमिव तस्समए ॥२३५।। *एइंदियादिदेहा जीवा ववहारदो य जिणविट्ठा। हिंसादिसु जदि पापं सव्वत्थवि किण्ण ववहारो ॥२३६॥ विशेषार्थ-शरीरका आकार तो पर्याय है और रूप गुण है । अतः शरीरके आकारको देखकर यह कैसा सुन्दर रूप है, ऐसा कहना स्वजाति पर्यायमें स्वजाति गुणका आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है। इस प्रकार ये ऊपर कहे नौ भेद असद्भूत व्यवहारनयके जानना चाहिए। आगे कहते हैं कि व्यवहार सर्वथा असत् नहीं है जिनेन्द्रदेवने सर्वत्र पर्यायरूपसे व्यवहारको सत् कहा है । जो व्यवहारको सत् नहीं मानता उसके मतमें संसार और मोक्षके कारण कैसे बनेंगे ।।२३४।। यह चार गतिरूप संसार है। उसके हेतु शुभ और अशुभ कर्म हैं। यदि वह मिथ्या है तो उसके मतमें सांख्यकी तरह वह संसार कैसे बनेगा २३५॥ जिनेन्द्र देवने व्यवहारनयसे एकेन्द्रिय आदि जीवोंके शरीरको जीव कहा है। यदि उनको हिंसा करने में पाप है तो सर्वत्र व्यवहार क्यों नहीं मानते १।२३६।। विशेषार्थ-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयको अध्यात्ममें निश्चयनय और व्यवहारनय कहते है। जैसे द्रव्याथिकनयका विषय द्रव्य है, वैसे ही निश्चयनयका विषय है और जैसे पर्यायाथिकनयका विषय पर्याय है, वैसे ही व्यवहारनयका विषय भी भेदव्यवहार है। व्यवहार शब्दका अर्थ ही भेद करना है। अखण्ड वस्तुमें वस्तुतः भेद करना तो अशक्य है। क्या कोई आत्माके खण्ड-खण्ड कर सकता है ? किन्तु शब्दके द्वारा अखण्ड एक वस्तुमें भी भेदव्यवहार सम्भव है । जैसे आत्मामें दर्शन ज्ञान और चारित्रगुण हैं । अर्थात् गण और गुणी या द्रव्य और पर्याय के भेदसे अभिन्न वस्तुमें भी भेदकी प्रतीति होती है। यह भेदण्यवहार भी व्यवहारनयकी मर्यादाके ही अन्तर्गत है। यद्यपि इसे अशद्ध निश्चयनयका भी विषय बतलाया है, किन्तु शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहारनयमें ही आता है। जो शुद्ध द्रव्यका निरूपक है वह निश्चयनय है और जो अशद्ध द्रव्यका निरूपक है वह व्यवहारनय है। या जो स्वाश्रित है वह निश्चय नय है और जो पराश्रित है वह व्यवहार नय है। इसीसे आ· कुन्दकुन्दने निश्चयनयको भूतार्थ या सत्यार्थ कहा है और व्यवहारनयको अभूतार्थ या असत्यार्थ कहा है । इन दोनों नयोंकी सत्यार्थता और असत्यार्थताको स्पष्ट करनेके लिए यहाँ दोनों नयोंसे वस्तु स्वरूपका कथन किया जाता है। व्यवहारनयसे जीव और शरीर एक हैं, किन्तु निश्चयनयसे दोनों दो द्रव्य है। वे कभी एक नहीं हो सकते। इसी तरह संसारी जीव कोंसे बद्ध है और कर्म पोद्गलिक होनेसे रूप, रस, गन्ध स्पर्शगुणवाले हैं। इसलिए व्यवहारनयसे जीवको भी रूपादिवान् कहा जाता है। किन्तु निश्चयनयसे जीव रूपादिवाला नहीं है। इसी तरह संसारी जीवको बादर या सूक्ष्म, पर्याप्त या अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, सैनी, असैनी आदि कहा जाता है, यह सब व्यवहारनयसे है । क्योंकि बादर या सूक्ष्म और पर्याप्त या अपर्याप्त तो शरीर होता है। इन्द्रियाँ भी-शरीरमें ही होती हैं। जीवमें तो इन्द्रियां नहीं होती। किन्तु उस शरीरमें जीवका निवास होनेसे जीवको बादर १. 'सहत्थपच्चयादो-नयचक्र (देवसेन) गा० ६३ । २. तं क०। तहं ख० । तह मु०। ३. 'व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात असस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद भवत्येव बन्धस्याभावः।-समयसार. अमृतचन्द्रटीका, गा०४६ । ४. जिणुद्दिटा ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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