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नयचक्र व्यवहारनयं लक्षयित्वा भेदौ सूचयति
जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धस्थभेयकरो ॥२०९॥ जो एयसमयवदी गेण्हइ दवे धवत्तपज्जायं। सोरिउसुत्तो सहमो सव्वंपि सह जहा खणियं ॥२१०॥ मणुवाइयपज्जाओ मणुसोत्ति सगट्ठिदीसु वटुंतो। जो भणइ तावकालं सो थूलो होइ रिउसुत्तो ॥२११॥
एक भेदको संग्रह रूपसे विषय करता है वह अशुद्ध संग्रहनय या अपर संग्रहनय है। संग्रहन यकी दृष्टिमें अभेद शुद्धि है और भेद अशुद्धि है। इसीसे आचार्य सिद्धसेनने सन्मतिसूत्र में संग्रहनयकी प्ररूपणाके विषयको शुद्ध द्रव्याथिकनयकी प्रकृति कहा है। ___ आगे व्यवहारनयका स्वरूप कहते हैं
जो संग्रहनयके द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थका भेद करता है वह व्यवहारनय है । उसके भी दो भेद हैं-अशुद्ध अर्थका भेद करने वाला और शुद्ध अर्थका भेद करनेवाला ॥२०९॥
विशेषार्थ-संग्रहनयके द्वारा गृहीत अर्थका भेद करनेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं । व्यवहारका अर्थ ही भेदक-भेद करनेवाला है । जैसे सत् या द्रव्य कहनेसे लोकव्यवहार नहीं चलता।अतः व्यवहारनयको आवश्यकता होती है। जो सत् है वह द्रव्य या गुण है। द्रव्य भी जीव है या अजीव । जीव और अजीव कहनेसे भी व्यवहार नहीं चलता, अतः उसके भी देव नारकी आदि और घट-पट आदि भेद किये जाते हैं । यह नय वहाँ तक भेद करता जाता है जिससे आगे भेद नहीं हो सकता। संग्रहनयके जैसे अशुद्ध और शुद्ध दो भेद है, वैसे ही उसके भेदक व्यवहारनयके भी दो भेद हैं। शुद्ध संग्रहनयके विषयभूत शुद्ध अर्थ 'सत्' द्रव्यका भेद करनेवाला व्यवहारनय शुद्ध अर्थका भेदक व्यवहारनय कहाता है और अशुद्ध अर्थ जीव आदिका भेद करनेवाला अशुद्ध अर्थका भेद करनेवाला व्यवहारनय कहाता है।
ऋजुसूत्रनयका स्वरूप और भेद कहते हैं
जो द्रव्यमें एक समयवर्ती अध्रुवपर्यायको ग्रहण करता है उसे सूक्ष्म ऋजु सूत्र नय कहते हैं, जैसे सभी शब्द क्षणिक हैं और जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहनेवाली मनुष्य आदि पर्यायको उतने समय तक एक मनुष्य रूपसे ग्रहण करता है वह स्थूलऋजुसूत्रनय है ॥२१०-६११॥
विशेषार्थ-द्रव्यको भूत और भाविपर्यायोंको छोड़कर जो वर्तमान पर्यायको ही ग्रहण करता है उस ज्ञान और वचनको ऋजुसूत्रनय कहते हैं। प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है, इसलिए वास्तवमें तो एक पर्याय एक समय तक ही रहती है । उस एक समयवर्ती पर्यायको अर्थपर्याय कहते हैं । वह अर्थपर्याय सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयका विषय है। किन्तु व्यवहारमें एक स्थूलपर्याय जबतक रहती है,तबतक लोग उसे वर्तमान पर्याय कहते हैं जैसे मनुष्य पर्याय आयुपर्यन्त रहती है । ऐसी स्थूलपर्यायको स्थूलऋजुसूत्रनय ग्रहण करता है.। १. 'संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । सर्वार्थसि. १।३३ तत्त्वार्थराज वा० १।३३ । तत्त्वार्थश्लो. पृ० २७१ । 'व्यवहारोऽपि द्वधा। सामान्यसङ्ग्रहभेदको व्यवहारो यथा-द्रव्याणि जीवाजीवाः । विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा-जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च इति व्यवहारोऽपि द्वधा।'-आलाप० । २. 'ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयते इति ऋजुसूत्रः । पूर्वान् परांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्त अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । तच्च वर्तमान समयमानं तद्विषयपर्यायमात्रग्राह्योऽयमृजुसूत्रः'।-सर्वार्थसि. ११३३ । तत्त्वार्थवा० १।३३। तत्त्वार्थश्लो० १॥३३ । 'ऋजुसूत्रो द्विविधः । सूक्ष्मणुसूत्रो यथा-एकसमयावस्थायी पर्यायः । स्थूलर्जुसूत्रो यथा-मनुष्यादिपर्यायास्तदायुःप्रमाणकालं तिष्ठन्ति इति ऋजुसूत्रोऽपि द्वधा । --आलापप० । 'सो रिउसूत्तो सुहुमो सव्वं पि सद जहा खणियं ।'–नयचक्र गा० ३८ ।
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