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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० २१२
जो वट्टणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्णलिंगआईणं। सो सद्दणओ भणिओ ओ पुंसाइआण जहा ।।२१२॥ अहवा सिद्धे सद्दे कीरइ जं किंपि अत्थववहारं ।। तं खलु सद्दे विसयं देवो सद्देण जह देवो ॥२१३॥ सद्दारूढो अत्थो अत्थारूढो तहेव पुण सद्दो। भणइ इह समभिरूढो जह इंद पुरंदरो सक्को ॥२१४॥
सूक्ष्मऋजुसूत्रनयका उदाहरण देते हुए ऊपर गाथामें 'सव्वं पि सई जहा खणियं' पाठ है। किन्तु देवसेनके 'नयचक्रकी गाथामें 'सई'के स्थानमें 'सदं' पाठ है। 'सई'का अर्थ शब्द होता है और 'सदं'का अर्थ 'सत्' होता है। 'सत्' पाठ ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि क्षणिकवादो बौद्ध सभी सत्को क्षणिक मानता है। इस तरह ऋजुसूत्रनयके भी दो भेद हैं ।
आगे शब्दनयका लक्षण कहते हैं
जो एक अर्थमें भिन्न लिंग आदिवाले शब्दोंकी प्रवृत्तिको स्वीकार नहीं करता उसे शब्दनय कहते हैं। जैसे पुष्य आदि शब्दोंमें लिंगभेद होनेसे अर्थभेद जानना चाहिए। अथवा सिद्ध शब्दमें जो कुछ अर्थका व्यवहार किया जाता है वह शब्दनयका विषय है जैसे देवशब्दसे देव अर्थ लिया जाता है ।।२१२-२१३।।
विशेषार्थ-लिंग, संख्या, साधन आदिके व्यभिचारको दूर करनेवाले ज्ञान और वचनको शब्दनय कहते हैं। भिन्न लिंगवाले शब्दोंका एक ही वाच्य मानना लिंग व्यभिचार है, जैसे तारका और स्वातिका, अवगम और विद्याका, वीणा और वाद्यका एक ही वाच्यार्थ मानना । विभिन्न वचनोंमें प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंका एक ही वाच्य मानना वचनव्यभिचार है। जैसे आपः और जलका, तथा दाराः और स्त्रीका। इसी तरह मध्यम पुरुषका कथन उत्तम पुरुषकी क्रियाके द्वारा करना पुरुष व्यभिचार है। 'होनेवाला काम हो गया' ऐसा कहना कालव्यभिचार है, क्योंकि हो गया तो भूतकालको कहता है और 'होनेवाला' आगामी कालको कहता है। इस तरहका व्यभिचार शब्दनयकी दृष्टिमें उचित नहीं है। जैसा शब्द कहता है, वैसा ही अर्थ मानना इस नयका विषय है। अर्थात् यह नय शब्दमें लिंगभेद, वचनभेद, कारकभेद, पुरुषभेद और कालभेद होनेसे उसके अर्थ में भेद मानता है।
समभिरूढ़नयका लक्षण कहते हैं
जो अर्थको शब्दारूढ़ और शब्दको अर्थारूढ़ कहता है वह समभिरूढ़नय है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ॥२१४॥
विशेषार्थ-समभिरूढ़ नयके दो अर्थ है जैसा मूलमें ग्रन्थकारने भी बताया है। एक तो अनेक अर्थोंको छोड़कर किसी एक अर्थमें मुख्यतासे रूढ़ होनेको समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे 'गो' शब्दके ग्यारह
१. अत्थववहरणं अ० क० ख० मु.। अथववहारणं ज.। 'लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनयः।-सर्वाथसि० १॥३३॥ तत्त्वार्थ वा. १३३ । 'कालकारकलिङ्गानां भेदाच्छन्दोऽर्थभेदकृत।' लघीय का ४४ । 'कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः।'--तत्त्वाथइलो०, पृ. २७२ । २. 'नानार्थसमभिरोहणात समभिरूढः । यतो नानार्थान समतीत्यैकमर्थमाभिमख्येन रूढ़ः समभिरूढ़ः । --सर्वार्थसि०, तत्त्वार्थवाः, तत्त्वार्थश्लो. ११३३ । 'पर्यायभेदादभिरूढोऽर्थभेदकृत् ।'
-लघीय. का. ७२ । 'नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः, इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्रः, पूर्दारणात् पुरन्दर इति ।'--जयधवला,भाग १, पृ० २३९ ।
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