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________________ ११२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक व्वित्तअत्यकिरिया वट्टणकाले तु जं समायरणं । तं दणगमणयं जहेजदिणं णिव्वुओ वीरो ॥ २०६॥ पारद्वा जा किरिया पचणविहाणादि कहइ जो सिद्धा । लोएसु पुच्छमाणो भण्णइ तं वट्टमाणणयं ॥२०७॥ अवरोप्यरमविरोहे सव्वं अत्थित्ति सुद्धसंगहणे । होइ तमेव असुद्ध इगिजाइ विसेस गहणेण ॥२०८॥ आगे भूत नैगमनयको कहते हैं ------ जो कार्य हो चुका उसका वर्तमानकालमें आरोप करना भूत नैगमनय है, जैसे आजके दिन भगवान् महावीरका निर्वाण हुआ था ॥ २०६॥ [ गा० २०६ विशेषार्थ - अतीत में वर्तमानका आरोप करना भूतनैगमनय है । जैसे प्रतिवर्ष दीपावली के दिन कहते हैं कि आज भगवान् महावीरका निर्वाण हुआ था। यह भूतनैगमनयका विषय है । आगे वर्तमान नैगमनको कहते हैं जो प्रारम्भ की गयी पकाने आदिकी क्रियाको लोगोंके पूछनेपर सिद्ध या निष्पन्न कहना है वह वर्तमान नैगमनय है || २०७|| विशेषार्थ - जैसे कोई आदमी भात पकानेकी तैयारी कर रहा हैं। उससे कोई पूछता है क्या करते हो, तो वह उत्तर देता है-भात पकाता हूँ । उस समय भात बना नहीं है, फिर भी वह प्रारम्भ की गयी भात पकाने की क्रिया में निष्पन्नका-सा व्यवहार करता है, यह वर्तमान नैगमनयका विषय है । इस तरह नैगमनयके तीन भेद हैं । सारांश यह है कि एक द्रव्य अपनी भूत, भविष्यत् और वर्तमान पर्यायोंसे पृथक् नहीं है, किन्तु त्रिकालवर्ती पर्यायोंके समूहका नाम द्रव्य है । अतः जो भूत और भविष्यत् पर्यायोंमें वर्तमानका संकल्प करता है या वर्तमान में जो पर्याय पूर्ण नहीं हुई, उसे पूर्ण मानता है, उसे नैगमनय कहते हैं, उसी के उदाहरण ऊपर दिये हैं । आगे संग्रहनयका कथन करते हैं संग्रहनयके दो भेद हैं— शुद्ध संग्रहनय और अशुद्ध संग्रहनय । शुद्धसंग्रहनय में परस्पर में विरोध न करके सत् रूपसे सबका ग्रहण किया जाता है । और उसकी एक जाति विशेषको ग्रहण करलेसे वही अशुद्ध संग्रहनय कहा जाता है ॥ २०८ ॥ विशेषार्थ – अपनी-अपनी जातिके अनुसार वस्तुओंका या उनकी पर्यायोंका परस्पर में विरोध रहित एक रूपसे संग्रह करनेवाले ज्ञान और वचनको संग्रहनय कहते हैं। जैसे 'सत्' कहनेसे जो सत् है उन सभीका ग्रहण हो जाता है । और द्रव्य कहनेसे सब द्रव्योंका ग्रहण हो जाता है । जीव कहनेसे सब जीवोंका और पुद्गल कहने से सब पुद्गलोंका ग्रहण हो जाता है । इनमें से जो समस्त उपाधियोंसे रहित शुद्ध सन्मात्र को विषय करता है वह तो शुद्ध संग्रहनय है, उसकी पर संग्रह भी कहते हैं । और जो उसके अवान्तर किसी Jain Education International १. जह जिणं अ० क० ख० । जहा जिणं ज० । जहज दिणे मु० । २. णिव्वुईवीरे आ० मु० । 'अतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूतनैगमो । यथा - अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतः । ' - आलाप० । ३. 'कर्तुमारब्ध मोषनिष्पन्नमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो यथा -- ओदनः पच्यते ।' - आलाप० । ४. 'दव्वाट्ठियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ' - सन्मतिसूत्र गा० १४ | शुद्धद्रव्यमभिप्रैति ' संग्रहस्तदभेदतः । ' - लघीयस्त्रय का० ३२ | संग्रहो द्विविधः । सामान्यसंग्रहो यथा -- सर्वाणि द्रव्याणि परस्परमविरोधीनि । विशेष संग्रहो यथा - सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः इति संग्रहोऽपि द्विधा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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